क्योटो प्रोटोकॉल क्या है | क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधान क्या थे


क्योटो प्रोटोकॉल क्या है?
क्योटो प्रोटोकॉल का इतिहास
क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधान


नमस्कार दोस्तों, आनंद सर्किल में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। आज हम क्योटो प्रोटोकॉल पर चर्चा करेंगे। वर्तमान में चल रहे पर्यावरण कार्यक्रमों में क्योटो प्रोटोकॉल का क्या योगदान है, इसके प्रावधानों एवं प्रतिबद्धताओं का कितना अनुसरण किया गया है, क्या यह प्रोटोकॉल अपने लक्ष्य को पूर्ण करने में सफल हो सका? 

क्योटो प्रोटोकॉल क्या है?

क्योटो प्रोटोकॉल का प्रस्ताव तो 1997 में ही रखा गया था परंतु इसके लिए विस्तृत नियम कानून 2001 में मोरक्को में आयोजित हुए COP-7 सम्मेलन में बनाए गए थे और यह प्रोटोकॉल 16 फरवरी 2005 मांट्रियल में हुए COP-11 सम्मेलन में कनाडा के शामिल होने के बाद प्रभाव में आया। इसके प्रभाव में आने के पीछे देरी का कारण इसका यह नियम था कि यह कानून प्रभाव में तब आएगा जब सम्पूर्ण विश्व का 55%  कार्बन उत्सर्जित करने वाले देश इस समझौते पर हस्ताक्षर कर देंगे। 

कनाडा ने इस पर 2005 में हस्ताक्षर किए जिससे यह प्रोटोकॉल 2005 में लागू हो पाया, जिस वजह से 2008 तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन 1990 की तुलना में 5.2% तक कम करने के लक्ष्य को बढ़ाकर 2012 तक कर दिया गया।

इसमें सभी देशों को दो श्रेणियों में बांटा गया था। प्रथम श्रेणी में सर्वाधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले 16 विकसित देशों को रखा गया था, जिसमे USA, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, UK आदि शामिल थे, इसे Anex-1 के नाम से जाना जाता था। दूसरी श्रेणी में अन्य सभी देशों को रखा गया था। भारत, चीन जैसे देश इसी सूची में शामिल थे, इस सूची को Anex-2 कहा जाता था। भारत इस प्रोटोकॉल में 2002 में प्रथम बार भारत में हुए COP के 8वें सम्मेलन में शामिल हुआ था। हालांकि 8 Aug 2017 को भारत ने भी Anex-1 में शामिल होना स्वीकार कर लिया था। इस प्रोटोकॉल में कुल 192 देश शामिल थे। 
यह प्रोटोकॉल दो चरणों में चला, प्रथम चरण 2008 से 2013 तक और द्वितीय चरण 2013 से 2020 तक। 2020 में यह प्रोटोकॉल समाप्त हो गया और इसके बाद 2015 में पेरिस में हुए जलवायु समझौते को 2021 से लागू किया गया।


क्योटो प्रोटोकॉल का इतिहास

क्योटो प्रोटोकॉल को समझने के लिए हमें इसके इतिहास में जाना होगा। इसकी उत्पत्ति कैसे हुई किस प्रकार से हुई, ये सब समझना होगा। 
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण को लेकर प्रथम बैठक 5 जून 1972 ई० को स्टॉकहोम (स्वीडन) में हुई थी हालांकि इस बैठक में जलवायु परिवर्तन जैसा कोई मुद्दा नहीं था। इसी बैठक में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की घोषणा की गई थी। उसी के उपलक्ष्य में हर वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। 

जलवायु परिवर्तन को लेकर सर्वप्रथम कोई आयोजन नवंबर 1988 को जेनेवा में हुआ था, जिसे विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO– World Meteorological Organization) और संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP– United Nations Environment Programme) द्वारा आयोजित किया गया था। इस आयोजन में जलवायु परिवर्तन पर एक अंतरराष्ट्रीय पैनल IPCC (Intergovernmental Panel on Climate Change) का गठन हुआ था। ये UN(United Nations) की ही एक संस्था है। इस पैनल का उद्देश्य सभी देशों की सरकारों को वैश्विक तापमान में वृद्धि को लेकर वैज्ञानिक जानकारियां उपलब्ध कराना है ताकि उसके अनुसार जलवायु परिवर्तन जैसे खतरों से निपटने के लिए नीतियां बनाई जा सके। इसने अपनी प्रथम रिपोर्ट 1990 में जारी की थी। 


पृथ्वी सम्मेलन 1992

वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण के संरक्षण को लेकर पृथ्वी सम्मेलन हुआ था जिसमें एक बहुपक्षीय अंतरराष्ट्रीय समझौता UNFCC (United Nations Framework on Climate Change) हुआ जो मार्च 1994 से प्रभाव में आया। इसमें यह तय किया गया कि सभी देश अब पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर हर वर्ष एक सम्मेलन में मिलेंगे और इसके लिए नीतियां बनाएंगे। इसमें जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता, ग्लोबल वार्मिंग और मरुस्थलीकरण जैसे विषयों पर चर्चा हुई थी। यह समझौता कानूनी रूप से गैर बाध्यकारी था अर्थात इस समझौते को मानने के लिए किसी भी देश को बाध्य नहीं किया जा सकता था। इस समझौते के तहत प्रथम सम्मेलन 1995 को बर्लिन में हुआ था, जिसे COP(Conference of parties)-1 के नाम से जानते हैं और तब से हर वर्ष सभी देश इस मंच पर मिलते रहे हैं। अभी हाल ही में इसका 26वाँ सम्मेलन (COP-26) ग्लासगो(स्कॉटलैंड) में आयोजित किया गया था। 
वर्ष 1997 में क्योटो (जापान) में आयोजित हुए COP-3 सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने एक बाध्यकारी समझौते का प्रस्ताव रखा था, उसी को क्योटो प्रोटोकॉल के नाम से जाना जाता है।


क्योटो प्रोटोकॉल के प्रावधान

क्योटो प्रोटोकॉल के प्रथम चरण (2008-2013) में वैश्विक कार्बन उत्सर्जन दर 1990 के तुलना में 5.2% कम करने का लक्ष्य रखा गया था हालांकि यह लक्ष्य पूर्ण नहीं किया जा सका। फिर 2013 से 2020 तक के द्वितीय चरण में कार्बन उत्सर्जन दर 18% तक कम करने का लक्ष्य रखा गया, उसे भी पूर्ण नहीं किया गया। 
इस प्रोटोकॉल में वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने की जिम्मेदारी सर्वाधिक उत्सर्जन करने वाले Anex-1 में शामिल 16 विकसित देशों की ही थी, Anex-2 में शामिल देशों को इस प्रतिबद्धता से मुक्त रखा गया था। राष्ट्रीय स्तर पर कटौती का लक्ष्य विकसित देशों के लिए अलग अलग था जैसे यूरोपीय यूनियन (EU) के लिए 8%, अमेरिका के लिए 7%, जापान के लिए 6%, इसी प्रकार अन्य विकसित देशों के लिए। 
इस प्रोटोकॉल में स्वच्छ विकास तंत्र (CDM- Clean Development Mechanism) के तहत कार्बन क्रेडिट की व्यवस्था की गई थी, जिसके अनुसार Anex-1 में शामिल विकसित देश या उनकी कोई भी कंपनी Anex-2 में शामिल अन्य विकासशील देशों में कार्बन उत्सर्जन में कटौती करने वाली और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के विकास वाली परियोजनाओं में निवेश कर सकती हैं। इसके तहत विकसित देश कम विकसित देशों में, गरीब देशों में और विकासशील देशों में प्रौद्योगिकी एवं इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में निवेश करेंगे। ऐसा करने पर उन्हें कार्बन क्रेडिट मिलेंगे जिसका विक्रय भी किया जा सकता है। 

क्योटो प्रोटोकॉल दो चरणों तक चलने के बाद वर्ष 2020 में समाप्त हो गया। यह प्रोटोकॉल जिस लक्ष्य और जिस प्रतिबद्धता के साथ बना था, उसे पूर्ण करने में असफल रहा। इसके कुछ कारण थे कि यह सभी देशों पर बाध्यकारी था और इसके लिए ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करने का लक्ष्य समिति के द्वारा निर्धारित किया जाता था, जिसे सभी देशों को मानना होता था और कोई भी देश ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कटौती करके अपने आर्थिक, औद्योगिक और बुनियादी ढांचे के विकास को प्रभावित नहीं करना चाहता था। 

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