गणतंत्र क्या है | भारत गणतंत्र कब बना | भारत में किस प्रकार का गणतंत्र है | भारतीय गणतंत्र की सफलता



आज पूरा भारत धूमधाम से अपना 73वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। आज ही के दिन 72 साल पहले 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था। आज ही के दिन भारत गणतंत्र बना था, भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था का सूत्रपात हुआ था। 

भारत: एक गणराज्य

जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारा वर्तमान संविधान आज से 75 साल पहले की परिस्थितियों के आधार पर बना था, जिसका निर्माण पूरे भारत के विभिन्न क्षेत्रों, रियासतों, प्रांतों के प्रतिनिधियों द्वारा चुनी गई संविधान सभा द्वारा एक व्यापक सामूहिक बहस और सामूहिक विचार-विमर्श करके हुआ था। भारत को संविधान के जरिए एक गणराज्य (गणतंत्र) घोषित किया गया था।  किसी देश के गणतंत्र होने का मूल अर्थ है कि अब देश का शासक अनुवांशिक राजा नहीं बल्कि गण अर्थात जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि होगा, जबकि कुछ शताब्दियों पहले तक भारत में वंशवादी राजतंत्र व्याप्त था, जिसके सुखद अनुभव न होने की वजह से संविधान निर्माताओं ने देश की प्रगति, एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने के लिए भारत राष्ट्र को एक गणतांत्रिक राष्ट्र बनाने का निर्णय किया था और उनके द्वारा बनाई गई संविधानिक व्यवस्थाओं के आधार पर 26 जनवरी 1950 को भारत आधिकारिक तौर पर एक गणराज्य घोषित हो गया था।

क्या भारतीय गणतंत्र अपने उद्देश्यों में पूर्णतः सफल हुआ

गणतंत्र के जिस परिभाषा और अपेक्षाओं के साथ संविधान निर्माताओं ने भारत को एक गणराज्य बनाया था, वर्तमान परिस्थितियों में पिछले कुछ दशकों से देखा जा सकता है कि भारत में गणतांत्रिक एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत सत्ता पाने वाले राजनीतिक दलों ने संविधान द्वारा परिभाषित गणतंत्र की परिभाषा का खुले तौर पर उल्लंघन किया है, गणतंत्र की मर्यादा को नष्ट किया है। इन सभी का मूल कारण भारत में अपनाई गई चुनाव प्रणाली है, जिसमें भारतीय लोकतंत्र को दलगत व्यवस्थाओं में सीमित कर दिया गया है। दल आधारित इसी राजनीति का परिणाम है कि भारत में पुनः वंशवादी लोकतंत्र अपनी जड़ें मजबूत करने लगा है। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का दुरुपयोग करते हुए अनेक राजनैतिक दल अपने परिवार को मजबूत कर रहे हैं, वंशवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, देश हित को ध्यान में न रखकर स्वहित (निजीहित) को प्राथमिकता दे रहे हैं। 

राजनैतिक दलों में खत्म होता लोकतंत्र

इन सभी की शुरुआत भारत की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस ने किया है। पंडित जवाहरलाल नेहरु की विरासत को उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने संभाला, फिर उनकी असमय मृत्यु पर उनकी विरासत को उनके पुत्र राजीव गांधी ने संभाला और फिर राजीव गांधी की मृत्यु होने के बाद उनकी विरासत को उनके पुत्र राहुल गांधी एवं पुत्री प्रियंका गांधी संभालने को तैयार हो रहे हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी जिसकी विरासत को मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव संभाल रहे हैं, रालोद जिसकी विरासत चौधरी अजीत सिंह के पुत्र जयंत चौधरी संभाल रहे हैं।  बिहार में लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की विरासत को उनके पुत्र संभाल रहे हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना की विरासत को बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे संभाल रहे हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अपनी तृणमूल कांग्रेस को संभालने के लिए अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी को तैयार कर रही हैं। 

वर्तमान में यदि राष्ट्रीय दल की बात किया जाए तो एकमात्र दल भारतीय जनता पार्टी है जिसमें अभी लोकतांत्रिक व्यवस्था व्याप्त है। 

अक्सर देखा जाता है कि किसी घटना विशेष पर विपक्ष में बैठे सभी राजनैतिक दल राग अलापना शुरू कर देते हैं कि सत्ता पक्ष लोकतंत्र की हत्या कर रहा है, लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ कर रहा है और सत्ता में आने पर लोकतंत्र की रक्षा का वचन देते हैं, लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन करने की कसमें खाते हैं परंतु जब व्यवहारिक तौर पर स्वयं लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन नहीं करते, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं का सम्मान नहीं करते तो सत्ता में रहने पर किस आधार पर वे लोकतंत्र की रक्षा कर सकते हैं। जिनकी जड़ें स्वयं वंशवाद का परिणाम है, जिनका वर्तमान स्वयं वंशवाद का फल है, पूर्वजों की बनाई विरासत है, वह भला लोकतंत्र का अर्थ क्या समझेंगे, लोकतंत्र को क्या सम्मान देंगे?

क्या भारतीय गणतंत्र वास्तव में गणतंत्र बन पाया है?

भारत में वर्तमान में सबसे बड़ा मुद्दा कानून व्यवस्था है। हमारे देश में अनेक ऐसे राजा हुए हैं जिनकी न्याय प्रियता का इतिहास विश्व प्रसिद्ध है। विक्रमादित्य जिनके बारे में अनेक कहानियां प्रचलित हैं, जिनके न्याय की अनेक चर्चाएं लोगों में प्रचलित हैं। अक्सर हम रामराज्य की बात करते हैं परंतु वास्तव में रामराज्य क्या है? क्या रामराज्य केवल भगवान श्रीराम का शासनकाल है? वास्तव मे  रामराज्य एक संकल्पना है जिसमें सभी के साथ समय पर न्याय हो, कोई भेदभाव न हो, अमीर और गरीब का कोई भेद न हो, ऊंच नीच का कोई भेद न हो, सब को एक समान दृष्टि से देखा जाए, सभी को उन्नति के समान अवसर मिलें, समाज में खुशहाली व्याप्त हो, शासक जनता के हित में कार्य करे, जनता के लिए कार्य करे, न कि उनका शोषण परंतु वर्तमान में क्या होता है, अमीरों को अधिक सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, रसूखदारों को अधिक सुविधाएं प्रदान की जाती हैं जबकि गरीबों का शोषण किया जाता है और ये सब केवल और केवल अंग्रेजों द्वारा थोपे गए कानून के कारण ही हो रहा है जिसका अनुसरण भारतीय संविधान के निर्माण के दौरान संविधान निर्माताओं ने किया। अंग्रेजी कानूनों को भारतीय संविधान में शामिल कर लेने से ही आज गरीबों को समय पर न्याय नहीं मिल पा रहा है। अमीरों और रसूखदारों की इच्छानुसार, उनकी आवश्यकताओं के अनुसार न्यायालय चलते हैं, न्यायालय में सुनवाई केवल उनकी होती है जिनकी न्यायालय में पहुंच हो। न्यायालय में मुकदमें सालों साल चलते हैं, लोगों को इंसाफ मिलेगा या नहीं, इसकी उम्मीद नहीं रहती। कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते लगाते लोगों का पूरा भविष्य खराब हो जाता है, उनकी पूरी उम्र बीत जाती है।

इन सभी का उपचार प्राचीन भारत में व्याप्त न्याय व्यवस्था में ही है, जहां न्याय मांगा जाता था, न्याय की गुहार नही लगाई जाती थी। जबकि वर्तमान में अंग्रेजी कानूनों में न्याय की गुहार लगाई जाती है, जिस कारण न्यायाधीश खुद को ही सर्वेसर्वा मानने लगते हैं, न्याय करना अपना कर्तव्य नहीं समझते, बल्कि अपने निर्णय को ही न्याय मानते हैं, चाहे वो अन्याय ही क्यों न हो।

प्राचीन न्याय व्यवस्था में अनेक ऐसे उदाहरण रहे हैं जिसमें राजा पर भी मुकदमा किया जा सकता था, अपराध सिद्ध होने पर राजा को भी दंड मिलता था और वही दंड जो सामान्य आरोपित को मिलता था। उसके साथ भी कोई भेदभाव नहीं होता था जबकि वर्तमान अंग्रेजी कानूनो में राजा पर उसके कार्यकाल के दौरान अपराधिक मुकदमा दर्ज नहीं किए जा सकते।

इस प्रकार देखा जाए तो हमारा वर्तमान संविधान जिन परिस्थितियों में बना था, जिन व्यक्तियों के द्वारा बना था और जिनके प्रभाव में बना था, वह आज से 75 साल पहले की बात है। अब आवश्यकताएं बदल गई हैं, अनुभव बदल गया है, परिस्थितियां बदल गई हैं, इसलिए अब एक नए संविधान, एक नई कानून व्यवस्था एवं एक नए लोकतांत्रिक व्यवस्था की आवश्यकता होने लगी है।

हमारा वर्तमान संविधान कहने को तो संविधान है अर्थात सभी के लिए समान विधान, जबकि वास्तविकता में इसमें अनेक विसंगतियां हैं। इस संविधान में समय-समय पर ऐसे अनेक ऐसे संशोधन किए गए हैं जिनके आधार पर इसमें विभेद लगातार बढ़ते रहे हैं। समाज में अल्पसंख्यक बहुसंख्यक की थ्योरी गढ़ कर  अल्पसंख्यकों को अधिक अधिकार देकर संविधान की मर्यादा का उल्लंघन किया गया है, संविधान की परिभाषा का उल्लंघन किया गया है। प्रारंभ में वर्ग, जाति, धर्म और भाषा के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था कर, फिर समय-समय पर आरक्षण की सीमाओं को बढ़ाकर और आरक्षण की व्यापकता को बढ़ाकर लगातार संविधान की वास्तविकता को, संविधान की गरिमा को ठेस पहुंचाई गई है। समान विधान जैसी कोई परिभाषा वर्तमान संविधान के आधार पर उत्पन्न ही नहीं हो सकती है। इसमें किसी एक व्यक्ति विशेष को अन्य व्यक्तियों पर अधिक अधिकार है, किसी जाति विशेष को अन्य जातियों पर प्राथमिकता मिलती है, किसी धर्म विशेष को अन्य धर्मों पर प्राथमिकता मिलती है। इस प्रकार यह संविधान अपने वास्तविक अर्थ से सर्वथा भिन्न है। संविधान के अनुच्छेद 44 में देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता (Uniform civil code) का प्रावधान तो किया गया है पर आज तक इस पर कानून नहीं बन सका, सिर्फ वोट बैंक और दल आधारित राजनीति के कारण।
संविधान के अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यकों को धार्मिक आधार पर विशेषाधिकार दिया गया है जिसके आधार पर देश भर में आज अनेक मदरसे चल रहे हैं, ईसाई मिशनरियां आकर अपने कान्वेंट स्कूल चला रही हैं। वास्तव में इसकी आड़ में देश भर में मतांतरण का एक बहुत बड़ा गिरोह सक्रिय है जो लोगों को बहका कर, उनका माइंड वाश कर उनका मतांतरण करा रहा है। उनको समाज की मुख्यधारा से अलग कर रहा है। दुनिया भर में सभी लोग जानते हैं कि इनमें से अनेक मदरसों में ही आतंकी बनने की शिक्षा दी जाती है, जेहाद की ट्रेनिंग दी जाती है, इन मदरसों को ही आतंकियों की फैक्ट्री माना जाता है। फिर भी संविधान के अनुच्छेद 30 को निरस्त नहीं किया जा रहा है, सिर्फ और सिर्फ वोट बैंक की राजनीति के कारण, तुष्टीकरण की राजनीति के कारण।

इसलिए आज आवश्यकता है देश में एक नई कानून व्यवस्था, एक नई न्याय व्यवस्था और एक नई लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने की, जिसमें शासक जनता के द्वारा तो चुना जाए पर शासक के लिए भी योग्यता का निर्धारण हो। शासक के ऊपर जनप्रतिनिधियों का नहीं, जनता का दबाव हो। शक्तियां जनप्रतिनिधियों के हाथ में न हो, बल्कि जनता के द्वारा शासक को दी जाए और शासक के अयोग्य सिद्ध होने पर जनता के द्वारा ही छीन लिया जाए। शासक अपने निर्णय लेने को स्वतंत्र हो, उस पर जनप्रतिनिधियों का किसी प्रकार का दबाव ना हो क्योंकि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए जनप्रतिनिधियों के ऊपर दबाव होना आवश्यक है। यदि जनप्रतिनिधियों को अधिक शक्तियां प्राप्त हो जाएंगी तो भ्रष्टाचार का निदान संभव ही नहीं है।

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