जलवायु परिवर्तन क्या है?
जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव
नमस्कार दोस्तों, आनंद सर्किल में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। आज हम वर्तमान दौर के सबसे चर्चित विषय जलवायु परिवर्तन पर बात करेंगे। आजकल जलवायु परिवर्तन के कारण, प्रभाव एवं भविष्य के परिणाम पर हर जगह चर्चा हो रही है। इसे नियंत्रित करने, इसका प्रभाव सीमित करने एवं भविष्य में होने वाले दुष्परिणाम को कम करने के लिए अनेक सम्मेलन, अनेक समिट, अनेक बैठकें हो रही हैं परंतु अभी तक किसी भी सम्मेलन का कोई भी प्रभावी परिणाम सामने नहीं आया है। हर जगह सम्मेलन के नाम पर सिर्फ और सिर्फ खानापूर्ति की जा रही है, एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाए जा रहे हैं। किसी भी देश के अंदर जिम्मेदारी का भाव दिखाई नहीं देता।
आज जलवायु परिवर्तन के जो प्रभाव सबके सामने आ रहे हैं, उसकी जिम्मेदारी लेने को भी कोई तैयार नहीं हो रहा। भविष्य के जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए भी कोई तैयार नहीं हो रहा। सभी देश अपनी भौतिक प्रगति की होड़ में लगे हैं। सभी के लिए भौतिक सुख का महत्व सर्वोपरि है, अपने लोगों को अधिक से अधिक भौतिक सुविधाएं देकर उन्हें विलासी बनाना, उन्हें भोगी बनाना सभी को प्रिय लग रहा है। संतोष का भाव, प्रकृति के संरक्षण का भाव एवं आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने की उत्सुकता किसी में नहीं रही। प्रकृति का महत्त्व समझने को कोई तैयार नही हो रहा है।
प्राचीन काल के लोग कम सुविधाओं में ही कितनी खुशी से, कितना सुख से रहते थे और आज जितनी सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं, उतनी ही अधिक भौतिकवादित और भौतिक सुख की भूख बढ़ती जा रही हैं।
प्रकृति का संरक्षण करने उसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी सिर्फ देशों की नहीं होती बल्कि इस पृथ्वी पर निवास करने वाले हर एक नागरिक की होती है, हर एक व्यक्ति की होती है। परंतु हम यह जिम्मेदारी अपने देशों पर छोड़कर स्वयं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं जबकि यह सामूहिक रूप से सभी मनुष्यों की ही जिम्मेदारी होती है कि वह स्वयं को भौतिक सुखों से दूर रखें क्योंकि जब किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होगी तो उसका उत्पादन नहीं होगा और उसका उत्पादन नहीं होगा तो प्रकृति का शोषण नहीं होगा, प्रकृति का क्षरण नहीं होगा।
जलवायु परिवर्तन समझने के लिए सबसे पहले ‘जलवायु क्या है’ यह समझना होगा।
जब हम जलवायु की बात करते हैं तो अक्सर एक शब्द और मस्तिष्क में आता है मौसम। हमें समझना होगा कि जलवायु और मौसम में बहुत अंतर है। मौसम वायुमंडल की एक क्षणिक अवस्था है अर्थात यह जल्दी-जल्दी बदल जाता है जैसे कि कभी 1 दिन में, 1 सप्ताह में या 1 मास में परंतु जलवायु का अर्थ एक लंबे समय तक एक समान चलने वाली मौसमी गतिविधियों के औसत से होता है, जलवायु दीर्घकालिक होता है। उदाहरण के तौर पर जैसे वर्ष भर में मौसम की विभिन्न अवस्थाएं देखने को मिलती हैं, कभी सर्दी, कभी गर्मी, कभी वर्षा। जब ये सारी गतिविधियां एक सीमित समय के बाद बार-बार दोहराती रहें, एक निश्चित चक्र का लंबे समय तक पालन करें तो उसे जलवायु कहते हैं। जैसे भारत में हर वर्ष जनवरी में ठंड पड़ती है, मार्च में बसंत ऋतु तो वहीं मई-जून में ग्रीष्म ऋतु, जुलाई-अगस्त में वर्षा ऋतु। इस प्रकार हर वर्ष इन मौसमी गतिविधियों का चक्र इसी प्रकार चलता है। किसी भी वर्ष ये अपने समय से आगे पीछे नही होतीं। जलवायु में परिवर्तन इतनी शीघ्रता से नहीं आता। किसी स्थान की जलवायु में परिवर्तन होने के लिए लगभग 30 से 35 वर्ष का समय लगता है।
जलवायु परिवर्तन और उसका प्रभाव
आजकल अक्सर हम सुनते हैं कि किसी स्थान पर बारिश ने 25 साल या 30 साल का रिकॉर्ड तोड़ा, किसी स्थान पर ठंड ने पिछले 25-30 साल का रिकॉर्ड तोड़ा, गर्मी ने पिछले कई सालों का रिकार्ड तोड़ा, बर्फबारी ने रिकॉर्ड तोड़ा, ये सब इसलिए क्योंकि जलवायु परिवर्तन हो रहा है। हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन होने में 30-35 वर्ष लगते हैं और ये सब जो हो रहा है, वो आज की गतिविधियों का परिणाम नही है, बल्कि 30-40 वर्ष पहले किए गए कार्यों का परिणाम है, जो आज हमें मौसमी घटनाओं में इतनी विषमताएं देखने को मिल रही हैं, जो पिछले कई वर्षों से नहीं हुई थी।
आज हम यह भी देख रहे हैं कि ग्लेशियर भी पिछले कई वर्षो की अपेक्षा अब तेजी से पिघलने लगे हैं, क्यों? क्योंकि वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है, पृथ्वी की सतह के तापमान में वृद्धि हो रही है और वैश्विक तापमान में होने वाली इसी वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से पहाड़ों से निकलने वाली नदियों में अधिक पानी आ रहा है, अचानक से कहीं हिमस्खलन हो जाने पर बगैर बारिश के बाढ़ आ जा रही है तो कहीं अनुमान से अधिक वर्षा जानलेवा साबित हो रही है। केदारनाथ में 2013 में आई आपदा को कौन भूल सकता है, अभी फिलहाल में ही उत्तराखंड के चमोली में हिमस्खलन के कारण आई आपदा को कौन भूल सकता है, दक्षिण भारत में लौटते हुए मानसून से होने वाली तबाही हम देख ही रहे हैं।
ये सभी घटनाएं जलवायु परिवर्तन का ही प्रभाव हैं। ग्लेशियरों के पिघलने और वैश्विक तापमान में वृद्धि होने से समुद्रों के जल का ताप और आयतन भी बढ़ रहा है जिससे समुद्र तटों पर बसे हुए शहरों के भविष्य में डूबने की संभावना बढ़ती जा रही है। भारत के मुंबई, चेन्नई, कोलकाता जैसे बड़े-बड़े शहर जो समुद्र तटों पर ही बसे हैं, उन सभी के भविष्य में डूबने की आशंका बढ़ती जा रही है। जापान का टोक्यो शहर जो समुद्र के किनारे है, उसकी भी डूबने की आशंका बढ़ती जा रही है। कई द्वीप जो समुद्रों में स्थित हैं, दुनिया के कई बड़े देशों के शहर, कई छोटे-छोटे देश जो समुद्र के किनारे या समुद्र के बीच में स्थित हैं, उन सभी के डूबने की संभावना बढ़ती जा रही है।
समुद्रों के जल का ताप बढ़ने से समुद्री क्षेत्रों में उत्पन्न होने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की संख्या भी बढ़ेगी और आजकल इसके परिणाम भी सामने आने लगे हैं। अनेक देशों में, अनेक समुद्र तटीय क्षेत्रों में आने वाले चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ने लगी है और न केवल चक्रवाती तूफानों की संख्या बढ़ेगी बल्कि उनकी तीव्रता, उनकी ताकत और उनके विनाशकारी प्रभाव भी बढ़ेंगे।
समुद्रों के तापमान में वृद्धि होने से समुद्री जीवों के जीवन पर भी संकट आएगा। अनेक मछलियां मरेंगी जिससे मत्स्य व्यवसाय करने वाले मछुआरों का व्यवसाय भी चौपट होगा और सिर्फ यही नहीं पृथ्वी के पूरे temperature belt परिवर्तित हो जाएंगे भूमध्य रेखा के आसपास के क्षेत्रों का ताप अर्थात उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों का ताप इतना अधिक हो जाएगा कि वे रेगिस्तानी क्षेत्रों में परिवर्तित हो जाएंगे। इसी प्रकार उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में और शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों मे बदल जाएंगे। ध्रुवों पर मौजूद बर्फ पिघलने लगेगी और पृथ्वी पर शीतोष्ण कटिबंधीय क्षेत्र जैसा कुछ नहीं बचेगा। पृथ्वी पर बर्फीले क्षेत्र या तो बहुत सीमित हो जाएंगे या पूरी तरह से समाप्त हो जाएंगे।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि जिस ग्लोबल वार्मिंग को, वैश्विक तापमान वृद्धि को हम एक साधारण सी वस्तु समझते हैं, साधारण सी वृद्धि समझते हैं, वास्तव में यह कितनी अधिक विनाशकारी हो सकती है। ये प्रकृति का संतुलन है, प्रकृति में अगर हम थोड़ी भी छेड़छाड़ करेंगे तो उसके अत्यधिक विनाशकारी परिणाम होंगे।
इन सभी घटनाओं के पीछे जिम्मेदार हमारा भौतिकवादी और विलासिता पूर्ण जीवन ही है और इसमें वृद्धि के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार यूरोप में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति है। उसी औद्योगिक क्रांति का परिणाम है जो मनुष्य भौतिक सुखों के पीछे तेजी से भागने लगा, मनुष्य की भौतिक लालसा, भौतिक सुखों की भूख तेजी से बढ़ने लगी। सभी देशों में आर्थिक वृद्धि के लिए औद्योगिक वृद्धि की होड़ मच गई। एक दूसरे से आगे निकलने के लिए सभी बड़े बड़े उद्योगों की स्थापना करने लगे परंतु पर्यावरण की, वातावरण की, प्रकृति की चिंता किसी ने नहीं की। इन सभी कार्यों से भविष्य में होने वाले परिणामों पर चर्चा किसी ने नहीं की।
आज जब परिणाम सामने आने लगे तो अनेक प्रकार के आडंबर किए जा रहे हैं, वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने, वैश्विक तापमान में होने वाली वृद्धि को सीमित करने के अनेक वादे किए जा रहे हैं परंतु सिर्फ कागजों पर। प्रभावी कार्यवाई करने को कोई भी तैयार नहीं है, अपनी भौतिक वृद्धि को रोकने के लिए या सीमित करने के लिए कोई तैयार नहीं है। ईंधन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आज भी हम अधिकतर जीवाश्म ईंधन पर ही निर्भर हैं। जीवाश्म ईंधन जैसे कि कोयला, पेट्रोल, डीजल जो अधिक से अधिक मात्रा में प्रदूषण फैलाते हैं, कार्बन डाइऑक्साइड करते हैं, जिसके कारण वैश्विक तापमान वृद्धि हो रही है, हम आज इतने आधुनिक होने के बाद भी इन्हीं पर निर्भर हैं।
Like this:
Like Loading...