पर्यावरण की रक्षा के लिए लोगों को आंदोलन करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?


पर्यावरण संरक्षण के लिए चलाए गए आंदोलन

नमस्कार दोस्तों, आज इस आलेख में हम भारत में पर्यावरण की रक्षा के लिए लोगों को आंदोलन करने के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा, इसके बारे में चर्चा करने वाले हैं।

पर्यावरण आंदोलनों का आधार 

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में पर्यावरण के लिए लोगों में इतनी जागरूकता प्राचीन काल में ही थी, जितना आज के वैज्ञानिकों एवं पर्यावरण संगठनों के जरिए विश्व के अनेक लोग जागरूक हो रहे हैं। भारत ही नहीं विश्व भर में अनेक ऐसे संगठन चल रहे हैं जिनका उद्देश्य और जिनका अस्तित्व सब कुछ प्रकृति को बचाना है, पर्यावरण की रक्षा करना और लोगों को इसके लिए प्रेरित करना, उन्हें इसके महत्व की जानकारी देना है। 


साथ ही इन संगठनों को सरकारों से यह उम्मीद भी रहती है कि वे भी पर्यावरण की रक्षा के लिए आवश्यक कदम उठाएंगे, उनका भी सहयोग करेगें। इन संगठनों का उद्देश्य यह भी होता है कि वे लोगों को सरकारों को इस बात के लिए प्रेरित करें और उनसे यह उम्मीद रखें कि आधुनिक विकास की इस अंधी दौड़ में वे लोग इतने भी अंधे ना हो जाए कि मानव का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए या खतरे में पड़ जाए। जिस विकास के पीछे आज का मनुष्य और विभिन्न औद्योगिक कंपनियां पागल हो रही हैं, वह विकास भी किस काम का, जो हमारे ही अस्तित्व को नष्ट कर दे?


पर्यावरण रक्षा आंदोलनो के कारण 

आज का मनुष्य विकास की जिस परिभाषा को मानता और समझता है, वह परिभाषा मनुष्य के भौतिक सुखों और सुविधाओं के आधार पर स्थापित हुई है और मनुष्य अपनी भौतिक सुखों और सुविधाओं के लालच में पर्यावरण का इतना अधिक दोहन करता जा रहा है कि धीरे-धीरे उसके विकास के ये प्राकृतिक स्रोत यानी कि जिन प्राकृतिक तत्वों और घटकों का दोहन करके वह अपने आप को विकसित समझ रहा है, विकसित कर रहा है, उन घटकों का स्रोत ही समाप्त होता जा रहा है।

विकास की वर्तमान असंतुलित प्रक्रिया के खतरे

भौतिक विकास की होड़ से प्रकृति को नुकसान

मनुष्य की वर्तमान पीढ़ी अपने विकास में इतनी अंधी हो चुकी है कि वह आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को ध्यान में ही नहीं रख पा रही यानी कि आज की पीढ़ी प्रकृति का इतना अधिक दोहन कर लेना चाहती है कि उसके जेहन में यह बात ही नहीं आती कि प्रकृति के ये तत्व भी समाप्त हो गए तो आने वाली पीढ़ियों को ये सारी सुविधाएं, ये सारे भौतिक सुख कहां से प्राप्त होंगे?


और खतरा सिर्फ इतना ही नहीं है कि आने वाले समय में हमारी अगली पीढ़ियों को उनके भौतिक सुखों एवं सुविधाओं के लिए प्राकृतिक तत्व एवं घटक बचेंगे ही नहीं या बहुत ही सीमित हो जाएंगे बल्कि इन प्राकृतिक तत्त्वों एवं घटकों के अत्याधिक दोहन से पृथ्वी का संतुलन भी बिगड़ता जा रहा है। 


आजकल अनेक ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें लोग खुद प्रकृति में हो रहे इस असंतुलन के साक्षी बनते हैं। इनका कारण जलवायु परिवर्तन ही है और जलवायु परिवर्तन इन प्राकृतिक तत्वों के असंतुलित उपभोग के कारण ही हो रहा है।



 रेगिस्तान में भारी वर्षा के कारण बाढ़ आने लगती है तो वर्षा वाले क्षेत्रों में वर्षा ही नहीं होती। समुद्रों के जलस्तर बढ़ रहे हैं तो गर्मी के दिनों में दिन के उच्चतम तापमान में वृद्धि हो रही है। इसका कारण पृथ्वी की सतह के औसत तापमान में हो रही वृद्धि है और यह वृद्धि ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण हो रही है, जिसके लिए ग्रीन हाउस गैसें जिम्मेदार हैं। पृथ्वी की सतह के औसत तापमान में हो रही इस वृद्धि को ही ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं।



 बर्फीले क्षेत्रों में ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं, इससे आने वाले समय में शुद्ध पानी की उपलब्धता पर संकट खड़ा हो रहा है और साथ ही इन ग्लेशियरों के कारण पृथ्वी के तापमान में जो संतुलन बना रहता है, इनके पिघलने के कारण वह संतुलन भी आज असंतुलित हो रहा है। पृथ्वी की सतह के औसत तापमान में वृद्धि का एक कारण यह भी है। 


वर्तमान असंतुलित विकास का इतिहास 

और यदि हम आधुनिक समय में चल रही विकास की इस असंतुलित प्रक्रिया के इतिहास में जाएंगे तो इसका इतिहास अधिक पुराना नहीं है। मानव विकास की इस आधुनिक असंतुलित प्रक्रिया का आरंभ यूरोप में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति की जड़ों में है। इसका आरंभ तब हुआ जब मनुष्य ने विज्ञान में इतनी प्रगति करनी आरंभ कर दी कि वह अपने कार्यों के लिए प्राकृतिक घटकों की सहायता के स्थान पर कृत्रिम मशीनों के ऊपर आधारित होने लगा और इसका कारण भी था क्योंकि जिन कार्यों के लिए अधिक मैन पावर की आवश्यकता होती थी, वे कार्य एक या दो मशीनों से ही होने लगे।


 धीरे-धीरे विज्ञान की प्रगति होती गई, अनेक नई चीजों की खोज होती गई। कंप्यूटर की खोज हुई, मोबाइल की खोज हुई, टेलीविजन की खोज हुई, अनेक छोटे छोटे भौतिक सुविधाओं के उपकरणों की खोज हुई, मोटर वाहनों की खोज हुई, डीजल इंजन की खोज हुई, पेट्रोल इंजन की खोज हुई। विमानों की खोज हुई, बड़े बड़े जलयानो के अविष्कार हुए।


 फिर मनुष्य विज्ञान की इस प्रगति का प्रयोग भौतिक सुखों के साथ-साथ अपनी सामरिक ताकत बढ़ाने में करने लगा। सभी देश एक दूसरे को काउंटर करने के लिए, एक दूसरे से आगे निकलने के लिए हथियारों की इस अंधी दौड़ में उलझ गए कि आज उसका परिणाम तृतीय और सर्वाधिक विनाशकारी विश्व युद्ध के संभावित खतरे के रूप में हमारे सामने हैं। 


विश्व की महाशक्ति बनने की होड़ में अनेक खतरनाक और विनाशकारी मिसाइलों की खोज होने लगी, अनेक लड़ाकू विमानों, हेलीकॉप्टरों, पनडुब्बियों, जलपोतों, विभिन्न विनाशकारी बमों, तोपों, टैंकों, ड्रोनों आदि अनेक प्रकार के सामरिक हथियारों की खोज होती गई, विकास होता गया। 


फिर रासायनिक हथियारों की खोज होने लगी, उनका भी विकास होता गया, उनके भी जखीरे बढ़ते गए। सभी देशों में ताकतवर और विनाशकारी हथियारों की प्रतिस्पर्धा बढ़ती गई। और तो और विश्व के सर्वाधिक विनाशकारी हथियार परमाणु बम की खोज भी हो गई, उनके लिए भी देशों में होड़ मच गई। सभी देश अपने आप को दूसरे देशों से सुरक्षित करने के लिए परमाणु बम विकसित करने लगे। 


ये सारे हथियार सिर्फ रखने के लिए या दिखाने के लिए तो बने नहीं है, आज नहीं तो कल इनका प्रयोग होगा ही और जब भी इनका प्रयोग होगा तो सर्वाधिक नुकसान इस मानव जगत का और पर्यावरण का अर्थात् इस प्रकृति का ही होगा।


आधुनिक बनने, विकसित होने और ताकतवर बनने की इस होड़ ने ही पर्यावरणविदों से लेकर आम जनमानस तक को विकास की इस असंतुलित और विनाशकारी प्रक्रिया के विरुद्ध आंदोलित होने के लिए मजबूर कर दिया। पर्यावरण की रक्षा के लिए लोगों को सरकारों और औद्योगिक इकाइयों के विरुद्ध आंदोलन चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा। 


भारत मे पर्यावरण आंदोलन का इतिहास 

अनेक लोगों ने, अनेक पर्यावरण प्रेमियों और पर्यावरण विदों ने पर्यावरण की रक्षा के लिए और मानव जगत के अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति भी दी, इसमें से सर्वाधिक प्रसिद्ध पर्यावरण आंदोलन राजस्थान में खिंजड़ी गांव में प्रारंभ हुआ बिश्नोई आंदोलन रहा, जिसका इतिहास भी अब तक ज्ञात पर्यावरण आंदोलनों में से लगभग सबसे पुराना है। यह आंदोलन 17वीं शताब्दी में जोधपुर के राजा अजीत सिंह के उस आदेश के विरोध में आरंभ हुआ था, जिसे उन्होंने वृक्षों को काटने के लिए दिया था। जिसमें लोगों ने वृक्षों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी, अपने आप का बलिदान किया था और इसका आरंभ अमृता देवी बिश्नोई नाम की एक महिला ने अपनी तीन बेटियों संग आत्म बलिदान देकर किया था। 


इसी तरह का एक आंदोलन वर्तमान उत्तराखंड (जो कि तत्कालीन समय में उत्तर प्रदेश का एक हिस्सा हुआ करता था) के चमोली जिले में गोपेश्वर नामक स्थान पर चलाया गया था जिसे चिपको आंदोलन के नाम से जाना जाता है। इस आंदोलन के प्रणेता श्री चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा को माना जाता है। 


सुंदरलाल बहुगुणा को एक अन्य आंदोलन टिहरी बांध विरोधी आंदोलन का जनक भी माना जाता है। इस तरह भारत में अनेक ऐसे आंदोलन चलाए गए हैं जिनका उद्देश्य पर्यावरण के विभिन्न घटकों की रक्षा करना रहा। कुछ आंदोलन नदियों को बचाने के लिए चलाए गए तो कुछ आंदोलन पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए। कुछ आंदोलन वृक्षों को बचाने के लिए चलाए गए हैं तो कुछ आंदोलन ग्रामों को बचाने के लिए। 


इन सभी आंदोलनों में नर्मदा बचाओ आंदोलन, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन, अप्पिको आंदोलन, जंगल बचाओ आंदोलन, साइलेंट वैली आंदोलन आदि प्रमुख हैं।


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