पुरातात्विक स्रोत क्या होते हैं | पुरातात्विक स्रोतों का अध्ययन क्यों जरूरी है


पुरातात्विक स्रोत

आइए दोस्तों आज हम चर्चा करेंगे पुरातात्विक स्रोत (archaeological source) क्या होते हैं, क्यों ये किसी संस्कृति अथवा सभ्यता का इतिहास जानने के लिए महत्वपूर्ण होते हैं, किस प्रकार से हम अतीत की घटनाओं के काल खंड का सही निर्धारण करते हैं और किन विधियों से करते हैं? आज के इस आर्टिकल में हम इसी की चर्चा करेंगे। इन स्रोतों का ऐतिहासिक महत्व होने के साथ साथ सांस्कृतिक महत्त्व भी है। इनके माध्यम से हम अपनी प्राचीन संस्कृति की समृद्धि का कारण जान सकते हैं और उन पर गर्व महसूस कर सकते हैं।

 कुछ उदाहरण के माध्यम से समझते हैं – समुद्रगुप्त के दिग्विजय का वर्णन उनके एकमात्र स्तम्भलेख प्रयाग प्रशस्ति से ही विदित होता है। यदि ये स्तम्भ न होता तो हम भारतीय इतिहास के एक अतिमहत्वपूर्ण विषय से अनभिज्ञ रहते।
इसी प्रकार महर्षि पतंजलि के महाभाष्य के कुछ वाक्यों से यह ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र शुंग ने कोई यज्ञ किया था। पर व्याकरण ग्रन्थ के एक – दो वाक्यों से इतना बड़ा निष्कर्ष निकालने में विद्वान संकोच कर रहे थे। परन्तु अयोध्या अभिलेख ने उसे स्पष्ट स्वर में घोषित किया, 
द्विर्श्वमेघ याजिनः सेनपतें पुसिमित्रस्य” कि पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ करवाये ।
इस तरह जहां साहित्य पर संशय होता है वहाँ हमारी सहायता पुरातात्विक साक्ष्य करते हैं।
पुरातात्विक स्रोत


किसी राष्ट्र अथवा किसी सभ्यता का इतिहास जानने के लिए तथा उसका उचित विश्लेषण करने के लिए पुरातात्विक साक्ष्यों एवं स्रोतों जैसे अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां, बर्तन आदि को शामिल किया जाता है। अधिकांश पुरातात्विक साक्ष्य टीलों की खुदाई से प्राप्त होते हैं। टीला अर्थात धरती का उभरा हुआ भाग जिसके नीचे पुरानी बस्तियों के अवशेष विद्यमान हो। टीले कई प्रकार के हो सकते हैं, जैसे-एकल सांस्कृतिक, मुख्य सांस्कृतिक एवं बहु सांस्कृतिक।

एकल सांस्कृतिक टीले अर्थात् ऐसे टीले जहां पर कोई एक ही प्रकार की संस्कृति एक ही प्रकार की सभ्यता दबी हुई हो, 
मुख्य सांस्कृतिक अर्थात ऐसे टीले जिसके नीचे एक से अधिक संस्कृतियां पाई जाती हों परंतु  उनमें से कोई संस्कृति ऐसी हो जिसका प्रभाव अन्य सभी पर हो,
एवं बहु सांस्कृतिक टीले जिसके नीचे कई महत्वपूर्ण संस्कृतियां पाई जाती हों,  जिनमें सभी का अलग-अलग पर्याप्त महत्व हो।


इस प्रकार हम कह सकते हैं प्राचीन टीलों अथवा स्मारकों का उत्खनन कर वहां से प्राप्त वस्तुओं एवं कलाकृतियों के आधार पर काल क्रमिक ऐतिहासिक विश्लेषण करना पुरातत्व विज्ञान अर्थात Archaeology कहलाता है।

उदाहरण के लिए हम सिंधु घाटी सभ्यता को ले सकते हैं पश्चिमोत्तर भारत में हुए उत्खननों से ऐसे नगरों का पता चलता है जिनकी स्थापना 2500 ईसा पूर्व हुई थी, सिंधु नदी के तट पर विकसित होने के कारण यह संस्कृति सिंधु सभ्यता के नाम से प्रचलित हुई थी, इसे हड़प्पा की सभ्यता भी कहा जाता है। इसी प्रकार विश्व में अनेक संस्कृतियां अनेक सभ्यताएं हैं जो नदियों के तट पर ही विकसित हुई और उसी नाम से जानी जाती हैं जैसे मिस्त्र की सभ्यता जो नील नदी के तट पर विकसित हुई थी, इस कारण उसे नील नदी की सभ्यता और मिस्त्र को नील नदी की देन भी कहा जाता है। इसी प्रकार इराक में मेसोपोटामिया की सभ्यता,जो दजला और फरात दो नदियोँ के मध्य क्षेत्र में जन्मी और विकसित हुई थी।



आइए समझते हैं आखिर ये संस्कृतियां ये सभ्यताएं नदियों के तट पर ही क्यों विकसित होती थी?


मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में भोजन और पानी शामिल है, जिसके बगैर जीवन संभव नहीं है। नदियों के तट पर भूमि काफी उपजाऊ होती है, सिंचाई के साधन अच्छे होते हैं, पीने का पानी भी मौजूद होता है। प्राचीन काल में आज की तरह नलकूपों की व्यवस्था नहीं थी, इस वजह से लोग नदियों, झीलों, सरोवरों के आसपास निवास करते थे ताकि पानी आसानी से उपलब्ध हो सके। यही वजह थी कि सभी संस्कृतियाँ नदियों के तट पर ही विकसित होती थी।


अब जानते हैं कि इन पुरातात्विक स्रोतों के अध्ययन से हमें क्या-क्या जानकारियां प्राप्त हो सकती हैं?


खुदाई में प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता था कि उस काल में मनुष्य किन-किन चीजों से वाकिफ था, किन किन उपकरणों, औजारों तथा हथियारों का प्रयोग करता था, किस प्रकार के घरों में निवास करता था, किस प्रकार के बर्तनों का प्रयोग करता था, भोजन के रूप में किन अनाजों का प्रयोग करता था? आपसी बोलचाल में कौन सी भाषा प्रयोग होती थी, उस समय लोगों की दिनचर्या कैसी होती थी, लोगों के विचार कैसे होते थे, उनकी आकांक्षाएं कैसी होती थी? इन सभी चीजों का अध्ययन खुदाई में मिलने वाले जीवाश्म, साहित्यिक ग्रंथों एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर किया जाता है।

कोई सभ्यता कितनी पुरानी है, कोई वस्तु कितनी पुरानी है, खुदाई से प्राप्त कोई जीवाश्म कितना पुराना है, इत्यादि चीजों का अध्ययन करने के लिए एक रेडियो कार्बन डेटिंग पद्धति निर्धारित की गई है जिसके आधार पर किसी सजीव वस्तु अथवा जीवाश्म में मौजूद कार्बन-14 में आई कमी के आधार पर उस वस्तु का काल निर्धारण किया जाता है कि वह वस्तु कितनी पुरानी है। इसके अलावा निर्जीव वस्तुओं, चट्टानों, अभिलेखों आदि का काल निर्धारण करने के लिए एक अन्य पद्धति यूरेनियम डेटिंग पद्धति निर्धारित की गई है, जिसके आधार पर कोई अभिलेख, कोई चट्टान या कोई वस्तु कितनी पुरानी है, इसका अनुमान लगाया जाता है।


इस प्रकार हम खुदाई में प्राप्त होने वाले इन पुरातात्विक स्रोतों के अध्ययन से प्राचीन काल में लोगों की जीवन शैली की आधुनिक जीवन शैली से तुलना करके विकास के कालक्रम को समझ सकते हैं। प्राचीन साहित्यिक स्रोतों से हम भाषा के विकास क्रम को समझ सकते हैं, हमारी आधुनिक भाषा किस प्रकार से विकसित हुई इसका अनुमान लगा सकते हैं, हम यह समझ सकते हैं कि कोई संस्कृति विकसित होने में कितना समय लेती है, हम यह समझ सकते हैं कि कोई संस्कृति किस प्रकार से नष्ट हो सकती है। मनुष्य किस प्रकार से अपनी एक संस्कृति अपनी एक सभ्यता निर्मित करता है और किस प्रकार से वह समृद्ध संस्कृति नष्ट हो जाती है। इन सभी के अध्ययन से हम अपने वर्तमान को सुधार सकते हैं, अपने भविष्य का आकलन एवं निर्माण कर सकते हैं।

इस प्रकार इस आर्टिकल में आपने जाना कि पुरातात्विक स्रोत क्या होते हैं और किसी संस्कृति का इतिहास, भूगोल, उनका कालक्रम एवं स्थापत्य कला तथा वास्तुकला इत्यादि का अध्ययन किस प्रकार से किया जाता है और यह स्रोत क्यों महत्वपूर्ण होते हैं।

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