राष्ट्रवाद क्या है | भारत का राष्ट्रवाद यूरोप से किस प्रकार अलग है


भारतीय राष्ट्रवाद कैसा है

नमस्कार दोस्तों, आनंद सर्किल में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। आज हम लोग एक अत्यधिक व्यापक शब्द राष्ट्रवाद पर चर्चा करेंगे। आजकल हर किसी की जुबान पर राष्ट्रवाद, राष्ट्रवादी, राष्ट्रीयता, राष्ट्रहित जैसे शब्द चल रहे हैं। भारतीय राष्ट्रवाद, यूरोपीय राष्ट्रवाद, पश्चिमी राष्ट्रवाद, नाजी राष्ट्रवाद, मार्क्सवादी राष्ट्रवाद, हानी राष्ट्रवाद, माओवाद जैसे अनेक शब्द आजकल लोगों की जुबान पर सुनने को मिल जाते हैं। वर्तमान समय में एशिया महाद्वीप में सर्वाधिक चर्चा हानी राष्ट्रवाद एवं भारतीय राष्ट्रवाद की हो रही है। हानी राष्ट्रवाद जिसका संबंध चीनी गणराज्य से है, इसके बारे में अक्सर लोगों सुनते हैं कि मौजूदा चीनी सरकार जो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना की है, वह इस राष्ट्रवाद को अत्यधिक प्रसारित कर रही है। इसी के आधार पर वह शिंजियांग प्रांत में रहने वाले उइगुर मुसलमानों और तिब्बत में रहने वाले बौद्धों का हानीकरण कर रही है। 


भरक्त मे राष्ट्रवाद की भावना का उदय
 

भारत में भी आजकल राष्ट्रवाद की लहर तेजी से फैल रही है। लोगों में अपने राष्ट्र के प्रति प्रेम, देशभक्ति, राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार, राष्ट्र के प्रति कर्तव्य एवं समर्पण की भावना का प्रसार जोर शोर से हो रहा है। जब बात राष्ट्रवाद की होती है तो अक्सर हमारे मन में यह विचार आता है कि राष्ट्रवाद का उदय यूरोप से हुआ। हमें बताया जाता है या पढ़ाया जाता है कि राष्ट्रवाद की भावना का प्रसार यूरोप से प्रारंभ हुआ। राष्ट्रवाद शब्द के जनक जॉन गोटफ्रेड हर्डर थे और 18 वीं सदी में इन्होंने जर्मन राष्ट्रवाद का गठन किया था। राष्ट्रवाद के अनेक सिद्धांत प्रचलित हैं, 18वीं सदी के प्रारंभ में राष्ट्रवाद का जो सिद्धांत प्रचलित था, जिस सिद्धांत के आधार पर जर्मन साम्राज्य का गठन हुआ था जिस राष्ट्रवाद के आधार पर इटली का एकीकरण हुआ था, वह एकल सांस्कृतिक था अर्थात एक राष्ट्र, एक भाषा, एक नस्ल, एक पंथ/धर्म, एक विचारधारा और एक क्षेत्र।

अर्थात यूरोपीय राष्ट्रवाद का उदय इस विचारधारा से हुआ कि एक राष्ट्र केवल एक समान भाषा बोलने वाले, एक समान नस्ल के लोगों, एक समान धर्म को मानने वाले, एक समान विचारधारा को मानने वाले तथा एक विशेष प्रकार के क्षेत्र में रहने वाले लोगों से बनता है। 

राष्ट्रवाद और देशभक्ति 

यहां एक बात याद रखना आवश्यक है कि राष्ट्रवाद की भावना देशभक्ति की भावना बिल्कुल भी नहीं है। यह देशभक्ति से पूर्णत: भिन्न है। राष्ट्रवाद किसी न किसी अवधारणा का अनिवार्य वाहक होता है, वह किसी एक सिद्धांत पर अडिग होता है, एकल सांस्कृतिक होता है अर्थात् किसी एक ही संस्कृति को मानने पर बाध्य करता है जबकि देशभक्ति की भावना किसी भी शर्त की मोहताज नहीं होती, यह लोगों के हृदय में अपने राष्ट्र के प्रति अपने धर्म, अपने कर्तव्य एवं अपने समर्पण की भावना से स्वयं उत्पन्न होती है।

किसी भी राष्ट्र के अस्तित्व के लिए उसके नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना, देशभक्ति की भावना आवश्यक है। वहां के लोगों में अपने राष्ट्र के प्रति अपने धर्म का ज्ञान होना आवश्यक है, अपने राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा वह राष्ट्र अस्तित्व हीन हो जाएगा या फिर अपना गौरव खो देगा। 

उदाहरण के लिए हम अपने 2000 साल के इतिहास को देख सकते हैं, जैसी राष्ट्रीयता की भावना के साथ आज से 2000 वर्ष पूर्व एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना हुई थी, वह अपने गौरवशाली अतीत का 1000 वर्ष पूर्ण करते करते नष्ट हो गई, क्योंकि लोगों में अपने राष्ट्र के प्रति धर्म, राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना समाप्त होने लगी, जब राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र रक्षा का विषय सामाजिक ना होकर के राजनीतिक होने लगा अर्थात जब राष्ट्र के नागरिकों के हृदय में राष्ट्र के प्रति अपने धर्म एवं कर्तव्य की भावना समाप्त हो गई और यह भावना घर करने लगी कि राष्ट्रीयता एवं राष्ट्र रक्षा सिर्फ राजाओं, शासकों का कर्तव्य है एवं राजाओं के मन में एक दूसरे साम्राज्य के प्रति हीन भावना, घृणा की भावना, क्रोध एवं नफरत की भावना, विस्तारवाद की भावना घर करने लगी, उसी से अखिल भारतीय साम्राज्य का पतन आरंभ हुआ एवं तुर्क आक्रमणकारियों, अरब आक्रमणकारियों ने भारतीय एकता को खंडित कर दिया एवं भारत के गौरवशाली इतिहास का नाश कर दिया।

जिस राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय एकता की भावना से  1000 वर्षों में भारतवर्ष सोने की चिड़िया बन गया था, धन संपदा, वैभव से परिपूर्ण हो गया था, एक समृद्धिशाली राष्ट्र बन गया था, वह भारतवर्ष राष्ट्रीयता की भावना के पतन होने के कारण अगले 1000 वर्षों तक कभी तुर्कों का, कभी मुगलों का तो कभी अंग्रेजों का गुलाम बना रहा और आज नेताओं का गुलाम बन रहा है, क्योंकि आज भी बहुत से भारतीय राष्ट्रीयता से पहले, राष्ट्रवाद एवं राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य से पहले जातीयता एवं अपना मजहब, अपना संप्रदाय, अपना पंथ, अपनी विचारधारा को महत्व देते हैं।

ऐसी एकल सांस्कृतिक विचारधारा भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा है जिसमें नागरिक अपने राजा का चुनाव करते समय राष्ट्रहित में किए जाने वाले उसके कार्यों, उसके विचारों एवं क्षमताओं को ना देख कर उसकी जाति, उसका धर्म देखते हैं, जहां नागरिकों में राष्ट्रीयता से पहले जातीयता का महत्त्व है, संप्रदायों का महत्त्व है। जिस विचारधारा एवं जिस वर्ण/जातिभेद की भावना के कारण भारतीय एकता, भारतीय राष्ट्रीयता नष्ट हुई थी आज भी भारत में अनेक लोग उसी विचारधारा के पोषक हैं।

पश्चिमी इतिहासकार एवं पश्चिमी लेखक यह बताते फिरते हैं कि राष्ट्रवाद की भावना का उदय यूरोप से हुआ। हां यह बात जरूर है कि आधुनिक राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रवाद शब्द का उदय यूरोप से हुआ परंतु राष्ट्रीयता की भावना भारतीय उपमहाद्वीप के लिए नई नहीं थी। भारतीय उपमहाद्वीप में यह प्राचीन काल से ही विद्यमान थी, इसी राष्ट्रीयता की भावना से सम्राट चंद्रगुप्त ने प्रथम अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की थी। 
18 वीं सदी में जिस राष्ट्रवाद के सिद्धांत पर यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय हुआ, वह अपने बीते 200 से 250 वर्ष के इतिहास में अब तक खरी साबित हुई है परंतु इस प्रकार की राष्ट्रीयता भारतीय राष्ट्रवाद पर लागू नहीं हो सकती। भारत जो एक बहु सांस्कृतिक राष्ट्र है, यहां यूरोप की इस प्रकार की एकल राष्ट्रवाद की संस्कृति लागू नहीं हो सकती। यूरोप में भी बीसवीं सदी में  इस एकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दुष्परिणाम देखने को मिले थे। 

जब एकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना अपने चरम पर होती है तो यह राष्ट्र की सांस्कृतिक विविधता को नष्ट करने लगती है, जबरदस्ती समरूपता स्थापित करने की कोशिश से तनाव एवं उग्रता को बढ़ावा मिलता है क्योंकि इस प्रकार की राष्ट्रीयता में एकल सांस्कृतिक अवधारणा को जोर-जबरदस्ती लागू करवाया जाता है। 

जर्मनी का नाजी राष्ट्रवाद उदाहरण के तौर पर हम देख सकते हैं। आधुनिक विश्व में चीन का हानी राष्ट्रवाद भी एक उदाहरण है, वहां भी जबरन लोगों को नस्ल के आधार पर प्रताड़ित किया जाता है, जबरन उनकी संस्कृति को नष्ट किया जाता है एवं देश की एकल संस्कृति को उन पर जबरन थोपा जाता है।

यूरोपीय राष्ट्रवाद की भावना को भारत में थोपने का परिणाम भी हम देख चुके हैं, किस प्रकार से अखंड भारत अनेक देशों के रूप में खंडित हो गया, किस प्रकार से धर्म के आधार पर भारत का विभाजन कर दिया गया, किस प्रकार से भाषा के आधार पर पाकिस्तान का विभाजन हो गया, दुनिया भर में धर्म के आधार पर अनेक देश बन गए, भाषा के आधार पर अनेक देश बन गए। 

आज पाकिस्तान में उसी राष्ट्रवाद के कारण अहमदिया मुसलमानों को मुसलमान नहीं माना जाता, सऊदी अरब उन्हें हज करने की अनुमति नहीं देता। उसी राष्ट्रवाद के कारण मुस्लिम देशों में गैर मुस्लिमों पर अत्याचार होता है, उसी राष्ट्रवाद(धार्मिक) के कारण अफगानिस्तान में आज तालिबान जैसे आतंकी संगठन के हाथ में देश की सत्ता आ गई, उसी एकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के कारण म्यांमार से मुस्लिमों को भागना पड़ा और इस वजह से आज भारत को, बांग्लादेश को  रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या का सामना करना पड़ रहा है। 

प्रत्येक राष्ट्र की उन्नति के लिए, उसके अस्तित्व के लिए राष्ट्रीयता की भावना, राष्ट्रवाद की भावना आवश्यक है परंतु यह राष्ट्रवाद एकल सांस्कृतिक नहीं होना चाहिए। यह राष्ट्रवाद जाति, धर्म, पंथ, मजहब अथवा भाषा के आधार पर नहीं होना चाहिए। यह राष्ट्रवाद आध्यात्मिक होना चाहिए, भावनात्मक होना चाहिए। सांस्कृतिक अवधारणाओं पर आधारित ना होकर भावनात्मक अवधारणाओं पर आधारित होना चाहिए। देश के प्रति अपने कर्तव्यों पर आधारित होना चाहिए, देश के प्रति अपने राष्ट्र धर्म पर आधारित होना चाहिए। अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों, विचारधाराओं के आधार पर नहीं, राष्ट्रहित एवं राष्ट्र सर्वोपरि की भावना के आधार पर भारतीय राष्ट्रवाद का पुनरुत्थान होना चाहिए। भारतीय राष्ट्रवाद के लिए राष्ट्रवाद उपयुक्त शब्द नही है, इसके लिए राष्ट्रीयता सर्वाधिक उपयुक्त होगी।

राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, केशव चंद्र सेन आदि महापुरुषों ने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों को नष्ट करने के लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को समर्थन दिया था उनको सहयोग दिया था परंतु उन्होंने कभी भारतीय संस्कृति में ब्रिटिश औपनिवेशिक संस्कृति का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया। भारत में सती प्रथा, बाल विवाह जैसी बुराइयों को, जातिभेद जैसी बुराइयों को नष्ट करने के लिए यूरोप की आधुनिक संस्कृति का भारतीय संस्कृति में समावेश करने का प्रयास किया परंतु यूरोपीय संस्कृति का भारतीय संस्कृति पर हावी होना स्वीकार नहीं किया। उदाहरण के तौर पर ईश्वर चंद विद्यासागर ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के लेफ्टिनेंट गवर्नर द्वारा आयोजित समारोह में इस बात से जाने से इनकार कर दिया क्योंकि उन्हें यूरोपीय पोशाक पहनने को कहा गया था। केशव चंद्र सेन जो राजा राम मोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज के सदस्य थे उन्होंने भी अंग्रेजी पोशाक पहनना और अंग्रेजी भोजन करना अस्वीकार कर दिया था।

इन महापुरुषों की भारतीय संस्कृति में यूरोपीय संस्कृति के समावेश का उद्देश्य मात्र भारतीय संस्कृति में उत्पन्न हुई कुरीतियों, बुराइयों को नष्ट करना था ना कि भारतीय संस्कृति को यूरोपीय संस्कृति के अनुसार बदलना।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उनके राष्ट्रवाद में परस्पर विद्रोह है परंतु हमें यह गहराई से समझने की जरूरत है कि उन्होंने मात्र बुराइयों को दूर करने के लिए ब्रिटिश राष्ट्रवाद, ब्रिटिश संस्कृति को समर्थन दिया था, परंतु भारतीय संस्कृति में, भारतीय राष्ट्रवाद में उपनिवेशवादी संस्कृति एवं राष्ट्रवाद के दखल का उन्होंने दृढ़ता पूर्वक विरोध किया था। भारत की राष्ट्रीय एकता में बाधा उत्पन्न करने वाली बुराइयों को समाप्त करना एवं एकता उत्पन्न करने वाली  संस्कृति की रक्षा करना ही इस प्रकार के राष्ट्रवाद का सार है।

महा गोविंद रानाडे, दादा भाई नौरोजी, बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रवादियों ने लोगों के अंदर राष्ट्रीयता की भावना, राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने के लिए गंभीर प्रयास किया था।  अपने लेखों के माध्यम से, अपनी पत्रिकाओं के माध्यम से ये लोग लोगों के अंदर राष्ट्रवाद की भावना पैदा कर रहे थे, राष्ट्रवाद की अलख जगा रहे थे। बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद घोष जैसे महात्माओं ने हिंदू राष्ट्रवाद की भावना, हिंदुत्व की वसुधैव कुटुंबकम् की भावना का प्रसार राष्ट्रीय एकता में असीम योगदान दिया था।  

स्वामी विवेकानंद के शिकागो विश्वधर्म सम्मेलन में दिए गए प्रवचन को, उनके भाषण को कौन भूल सकता है, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास आनंदमठ को कौन भूल सकता है जिससे भारत का राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम अपनाया गया है। रविंद्र नाथ टैगोर द्वारा रचित भारत भाग्य विधाता का योगदान कौन भूल सकता है, जिससे देश में राष्ट्रीयता की अलख जगाने वाले, राष्ट्रीयता की भावना पैदा करने वाले राष्ट्रगान “जन गण मन” को अपनाया गया है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर भी पश्चिमी राष्ट्रवाद के विरोधी थे परंतु उन्होंने भारतीय राष्ट्रीयता एवं स्वत्व का समर्थन किया था। 

भारत की राष्ट्रीयता यानी ‘स्वत्व’ के वे कैसे पक्षधर थे, इसका प्रमाण ‘स्वदेशी समाज’ निबंध है। इसमें वे लिखते हैं :-
देश के तपस्वियों ने जिस शक्ति का संचय किया वह बहुमूल्य है। विधाता उसे निष्फल नहीं होने देगा। इसलिए उचित समय पर उसने इस निश्चेष्ट भारत को कठोर वेदना देकर जागृत किया है। भारत की आत्मा को जगाकर भारत का स्वत्व प्रकट करने का समय आया है। यह प्रक्रिया ईश्वर की योजना से और आशीर्वाद से प्रारंभ भी हो चुकी है। भारत की इस आत्मा को नकारने वाले तत्व चाहे जितना विरोध करें, भारत विरोधी विदेशी शक्तियां चाहे जितना जोर लगा लें, भारत की जनता का संकल्प अब प्रकट हो चुका है। विश्व मंगल की साधना के पुजारियों की यह तपस्या और परिश्रम सफल होकर रहेंगे। भारत के ‘स्वत्व’ को शक्ति और गौरव के साथ पुनस्र्थापित करने के इस ऐतिहासिक समय में भारत के सभी लोग अपनी राजनीति और अन्य निहित स्वार्थ किनारे रख एकता का परिचय दें और स्वाभिमानपूर्ण आत्मनिर्भर भारत के निर्माण की इस यात्रा में सहभागी बनें यह अपेक्षा इस राष्ट्र की हम सबसे है।

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय राष्ट्रीयता एवं एकता पर कहा था- ‘भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़(स्थूल) की शक्ति से नहीं, वरन् आत्मा(राष्ट्रीयता) की शक्ति के द्वारा। वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं, वरन् शांति और प्रेम की ध्वजा से और संन्यासियों के वेश से, धन की शक्ति से नहीं, बल्कि भिक्षापात्र की शक्ति से संपादित होगा
स्वामीजी ने कहा था- ‘मैं अपने मानस चक्षु से भावी भारत की उस पूर्णावस्था को देखता हूं, जिसका तेजस्वी और अजेय रूप में वेदान्ती बुद्धि और इस्लामी शरीर के साथ उत्थान होगा…। हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य- हिन्दुत्व और इस्लाम- वेदान्ती बुद्धि और इस्लामी शरीर- यही एक आशा है।’

भारत के राष्ट्रवाद की पश्चिमी राष्ट्रवाद से तुलना करने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि पश्चिमी राष्ट्रवाद व्यक्तिवादी विचारधारा पर आधारित है जबकि भारतीय राष्ट्रवाद आध्यात्मिक एवं भावनात्मक विचारधारा पर आधारित है। भारतीय राष्ट्रवाद में किसी व्यक्ति के सिद्धांत, किसी मत, पंथ अथवा मजहब की भावना नहीं बल्कि एक सामूहिक, प्रगतिशील एवं समावेशी राष्ट्र की भावना है और यही एक राष्ट्र के अस्तित्व के लिए आवश्यक भी है कि देश के नागरिकों का राष्ट्रवाद देश के लिए अपने कर्तव्य, अपने धर्म एवं समर्पण पर आधारित होना चाहिए, किसी विचारधारा पर नहीं। 

यूरोपीय राष्ट्रवाद के एक परस्पर विपरीत परिणाम देखने को मिलते हैं, चाहे वह इस विचारधारा के उदय के पश्चात हो या चाहे वह आधुनिक विश्व में हो।  इस विचारधारा के सकारात्मक परिणाम की बात की जाए तो यह विचारधारा एकल सांस्कृतिक देशों में राष्ट्रीय एकता की भावना पैदा करती है तो नकारात्मकता में लेने पर यह बहु सांस्कृतिक देशों में विभाजन की भावना पैदा करती है। बहु सांस्कृतिक देशों में आपसी संघर्ष का कारण बनती है। यह राष्ट्रवाद की विचारधारा युद्धों का कारण बनती है, सीमाओं के संघर्ष का कारण बनती है जैसा कि प्राचीन भारत में हम देख चुके हैं जब भारत में राष्ट्रीय एकता की भावना नहीं थी तो भारत के अलग-अलग राज्य आपस में सीमाओं के विस्तार के लिए भिड़ जाते थे। इसी पारस्परिक विभाजन, इसी क्षेत्रीय राष्ट्रवाद का परिणाम सैकड़ों वर्षो की गुलामी से हमें चुकाना पड़ा। आधुनिक विश्व में भी क्षेत्रीय एवं एकल सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अनेक दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं। उदाहरण के तौर पर शीत युद्ध के दौरान सोवियत रूस का विभाजन, कोरिया का विभाजन, इजराइल-फिलिस्तीन, आर्मेनिया-अजरबैजान जैसे देशों का विवाद जो आज भी इसी एकल सांस्कृतिक एवं क्षेत्रीय राष्ट्रवादी विचारधारा के कारण संघर्ष का क्षेत्र बना हुआ है।


भारतीय संदर्भ में अगर यूरोप के राष्ट्रवाद को माना जाए तो भारत एक राष्ट्र ना होकर अनेक राष्ट्रों के रूप में बंट चुका होता। भारत में अनेक भाषाएं बोली जाती हैं, अनेक संप्रदायों को मानने वाले लोग रहते हैं, अनेक संस्कृतियां मानी जाती हैं, एक ही धर्म में अनेक पंथ हैं, एक ही धर्म में अनेक संस्कृति को मानने वाले लोग रहते हैं, अनेक जातियों को मानने वाले लोग रहते हैं, अगर ऐसे बहु सांस्कृतिक एवं बहु भाषाई देश में यूरोप के राष्ट्रवाद के इस सिद्धांत को कि “राष्ट्र केवल एक समान भाषा, एक समान नस्ल, एक समान धर्म वाले एवं एक समान क्षेत्र में रहने वाले लोगों से बनता है” तो भारत अनेक टुकड़ों में बट जाएगा। यूरोप की इसी विचारधारा का परिणाम हमने धर्म के आधार पर भारत का विभाजन देखा, इसी राष्ट्रवाद का परिणाम अखंड भारत से अफगानिस्तान को अलग करना, तिब्बत को, श्रीलंका को, म्यांमार को अलग करना, नेपाल, भूटान जैसे देशों को अलग करना था।

रामायण में एक श्लोक वर्णित है
अपि स्वर्गमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।
प्रभु श्री राम इस श्लोक के माध्यम से लक्ष्मण से कहते हैं कि हे लक्ष्मण! मुझे इस सोने की लंका में कोई रुचि नहीं है क्योंकि जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं, उनके लिए मैं स्वर्ग का भी त्याग कर सकता हूं।

आधुनिक विश्व में प्रचलित राष्ट्रवाद का उदय यूरोप में हुआ परंतु जो यूरोप आधुनिक राष्ट्रवाद की जननी है वहीं यूरोप इस राष्ट्रवाद को कमजोर कर रहा है। उसी यूरोप में अनेक देशों ने सामूहिक रूप से मिलकर यूरोपीय संघ के स्थापना की है जो यूरोपीय राष्ट्रवाद की भावना को क्षीण कर रहा है। अब समय के साथ साथ संपूर्ण विश्व राष्ट्रवाद से वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। आधुनिक विश्व में प्रभुत्व संपन्न लोगों के लिए राष्ट्रवाद की सीमा का कोई अर्थ नहीं रह गया है। आज लोगों के लिए राष्ट्रवाद से बढ़कर आत्म लाभ होने लगा है, निजी लाभ के लिए कोई कहीं भी जा सकता है, कहीं भी बस सकता है। आधुनिक विश्व में इंटरनेट एवं सोशल मीडिया के आने के बाद राष्ट्रवाद जैसे शब्द गौण होने लगे हैं, राष्ट्र की सीमाएं अब अर्थहीन साबित होने लगी हैं। अब संपूर्ण विश्व एक परिवार सा लगने लगा है, लोग किसी भी देश के किसी भी व्यक्ति से जुड़ सकते हैं। वैश्वीकरण को समर्थन देना उचित है और यह उन्नतिशील एवं शांत भविष्य के लिए आवश्यक है परंतु वैश्वीकरण की होड़ में राष्ट्रीयता की भावना का लोप नही होना चाहिए। राष्ट्रीयता की भावना, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के प्रति समर्पण, राष्ट्र के प्रति कर्तव्य एवं राष्ट्रधर्म का ज्ञान होना सभी के लिए आवश्यक है।

देशभक्ति से ओतप्रोत कविता लिखकर लोगों में राष्ट्रवाद का संचार करने वाले आचार्य प्रवर स्व. पंडित गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ ने लिखा है
“जिसको न निज गौरव 
तथा निज देश का अभिमान है, 
वह नर नहीं नर पशु निरा 
और मृतक समान है।।”

“जो भरा नहीं भावों से,
 बहती जिसमें रसधार नहीं, 
वह हृदय नहीं है पत्थर है, 
जिसमेें स्वदेश का प्यार नहीं।।”

इस प्रकार संपूर्ण आलेख का सार यही है कि किसी राष्ट्र की उन्नति के लिए, किसी राष्ट्र की समृद्धि के लिए राष्ट्र के लोगों में राष्ट्रीय एकता की भावना आवश्यक है, उनमें अपने राष्ट्र के प्रति राष्ट्र धर्म, कर्तव्य का ज्ञान एवं समर्पण की भावना आवश्यक है। राष्ट्र के प्रति प्रेम एवं देश भक्ति आवश्यक है। अपने राष्ट्र की समावेशी संस्कृति की रक्षा करना और उसे हर प्रकार की बुराइयों, कुरीतियों से बचाना, अपने राष्ट्र की उन्नति के लिए कर्म करना, अपने राष्ट्र में सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करना एवं उसकी रक्षा करना उस राष्ट्र के हर नागरिक का राष्ट्र धर्म है। किसी राष्ट्र के नागरिकों में राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रवाद की भावना का आधार एकल सांस्कृतिक नहीं बल्कि समावेशी सांस्कृतिक होना चाहिए, एकल वैचारिक नहीं बल्कि भावनात्मक होना चाहिए, आध्यात्मिक होना चाहिए, परंपराओं, रीति-रिवाजों, जाति-वर्ण भेद, धर्म-पंथ भेद आदि के स्थान पर देशभक्ति एवं देश प्रेम से परिपूर्ण होना चाहिए।

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