धर्म का मूल स्वरूप और जीवन का मूल उद्देश्य क्या है | आष्टांगिक योग क्या है | समाज में धर्म का पतन क्यों हो रहा है

धर्म का मूल स्वरूप और जीवन का मूल उद्देश्य
धर्म का मूल स्वरूप और जीवन का मूल उद्देश्य: नमस्कार दोस्तों, आनंद सर्किल में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। आज इस आलेख में हम समाज में धर्म के प्रति चल रही गलत अवधारणाओं और धर्म के प्रति समाज में चल रहे दुष्प्रचार को समझेंगे और जानेंगे कि किस प्रकार से समाज में धर्म के अर्थ का कुअर्थ कर दिया गया है? किस प्रकार से समाज में धर्म के मूल स्वरूप के प्रति अज्ञानता भर गई है? क्यों लोग धर्म का नाम सुनते ही उसे धार्मिक क्रियाकलापों से जोड़कर देखते हैं? यहां तक कि कुछ बुद्धिजीवी वर्ग तो धर्म का अस्तित्व ही मानने से इनकार करने लगा है।
हमेशा ऐसी बातें खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग ही कहता है, जो बनते तो अत्यंत बुद्धिजीवी और ज्ञानी हैं परंतु वास्तव में उनमें न तो किसी प्रकार का व्यवहारिक ज्ञान होता है और न ही धर्म जैसे व्यापक शब्द का अर्थ पता होता है। ये तथाकथित बुद्धिजीवी समाज पश्चिमी संस्कृति और विचारधाराओं के इतना अधिक वशीभूत हो चुका है कि इसे उन धर्म शास्त्रों का अध्ययन करने में कोई रुचि ही नहीं है जिनमें संपूर्ण ब्रह्मांड का ज्ञान और धर्म की व्यापकता समाहित है। अक्सर वेदों की तुलना विज्ञान से होती हैं परंतु इसके बावजूद यह बुद्धिजीवी वर्ग वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करने में शर्म और घृणा महसूस करता है।
 
खुद को शिक्षित, साक्षर और बुद्धिजीवी कहने वाला समाज का यह वर्ग इतना अधिक ज्ञानी हो चुका है कि उसके लिए धर्म जैसा विषय मायने ही नहीं रखता। अक्सर ये लोग यह कहते हुए मिल जाएंगे कि “मैं किसी धर्म को नहीं मानता”। किसी धर्म की बात तो बहुत दूर की है, पहली बात कि धर्म कभी किसी समुदाय या व्यक्ति विशेष के लिए अलग अलग होता ही नहीं, इसलिए किसी अन्य धर्म की बात तो संभव ही नहीं है। 

धर्म का मूल स्वरूप और जीवन का मूल उद्देश्य

समाज का यह बुद्धिजीवी वर्ग या अन्य सामान्य लोग धर्म शब्द को सुनते ही उसका जो अर्थ निकालते हैं, वास्तव में धर्म शब्द का वह अर्थ है ही नहीं। धर्म का संबंध कभी किसी धार्मिक क्रियाकलापों से नहीं रहा है और न ही इसका यह स्वरूप कभी बदलेगा। 
 
धर्म एक आदर्श और उत्कृष्ट जीवन जीने का माध्यम है। धर्म जीवन को भली प्रकार से और वास्तविक रूप में जीने की एक क्रिया है। वेदों में, उपनिषदों में सभी में धर्म का यही स्वरूप दिया गया है। सनातन हिंदू धर्म का भी मूल सार यही है। बड़ी विडंबना होती है जब धर्म के मूल स्वरूप की व्याख्या किसी धर्म गुरु के स्थान पर न्यायालय को करनी पड़ती है। पिछले दशक में सुप्रीम कोर्ट को यह बात स्वीकारनी पड़ गई थी कि हिंदू धर्म किसी धार्मिक क्रियाकलापों, आडंबरों को मानने वालों का समूह नहीं है, बल्कि हिंदू धर्म जीवन को उत्कृष्ट रूप से जीने, सफल बनाने और जीवन के मूल उद्देश्यों को प्राप्त करने का एक रास्ता है, एक माध्यम है। यही हिंदुत्व की मूल भावना है।
 
महात्मा बुद्ध ने, महावीर स्वामी ने भी धर्म का यही ज्ञान दिया था, जिनके नाम पर भी लोगों ने उनकी विचारधाराओं को अलग धर्म का नाम दे दिया है, जबकि वास्तव में कोई भी बौद्धाचार्य या जैनाचार्य वर्तमान समय में उनकी मूल शिक्षाओं का कभी अनुसरण नही करता।  
 
भगवान श्री कृष्ण ने, हमारे तमाम ऋषि-मुनियों ने सदैव धर्म का एक ही स्वरूप बताया है। किसी ने भी धर्म का स्वरूप धार्मिक क्रियाकलापों से जोड़कर नहीं बताया। गीता में धर्म की कितनी स्पष्ट व्याख्या दी गई है, उसके बावजूद “धर्म” शब्द सुनते ही लोग उसका संबंध धार्मिक क्रियाकलापों से जोड़ देते हैं जबकि वास्तव में धार्मिक क्रियाकलाप तो किसी व्यक्ति अथवा समुदाय की अपने ईष्ट के प्रति श्रद्धा भाव, समर्पण भाव, भक्ति भाव व्यक्त करने का एक माध्यम है कि वह किस प्रकार से अपने ईष्ट के प्रति समर्पण और भक्ति प्रकट करता है। यह धर्म के मूल स्वरूप को नहीं दर्शाता है, यह केवल अपनी आस्था और ईश्वर के प्रति श्रद्धा प्रकट करने का किसी  समुदाय अथवा किसी व्यक्ति विशेष की एक संस्कृति होती है। 
 
धर्म की परिभाषा इसके द्वारा प्रमाणित नहीं होती परंतु समाज का यह बुद्धिजीवी वर्ग और समाज के अन्य सभी लोग “धर्म” शब्द को सुनते ही उसका यही अर्थ निकालते हैं। लेकिन इसमें दोष उन लोगों का नहीं है, यह दोष उन तथाकथित धर्म गुरुओं का है, जिन्होंने अपने पद का दुरुपयोग किया, जो खुद वास्तव में धर्म का मूल स्वरूप कभी जान ही नहीं पाए और लोगों को धर्म का सही स्वरूप बताने के स्थान पर धार्मिक क्रियाकलापों, आडंबरों आदि को ही धर्म बताने लगे।
हां ये बात जरूर है कि ईश्वर के प्रति समर्पण व्यक्त करना, ईश्वर पर विश्वास रखना धर्म का एक अभिन्न हिस्सा है, परंतु ये धर्म का मूल स्वरूप नहीं है।
 
प्रथम पुरुष मनु द्वारा निर्मित मनु संहिता के अनुसार धर्म का जो मूल स्वरूप बताया गया है, उसी का उपदेश महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी ने दिया। परंतु महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी ने किसी धर्म शास्त्र या संहिता का अध्ययन करके धर्म के मूल स्वरूप का और जीवन के मूल उद्देश्य का उपदेश नहीं दिया था बल्कि ध्यान एवं योग के आधार पर आत्म साक्षात्कार करने के पश्चात ही इन्होंने धर्म एवं आध्यात्मिक की मूल शिक्षा लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया था। इसका अर्थ है कि इन्होंने यह ज्ञान आत्म साक्षात्कार के जरिए प्राप्त किया था अर्थात ध्यान एवं योग के पथ पर चलते हुए कोई भी मनुष्य आत्मसाक्षात्कार कर सकता है और धर्म का मूल स्वरूप जान सकता है। 
 
यही ज्ञान महावीर स्वामी और महात्मा बुद्ध ने दिया था, यही ज्ञान हमारे तमाम ऋषियों मुनियों ने दिया था कि सभी मनुष्यों को आत्म साक्षात्कार करने के लिए अर्थात् अपने मूल स्वरूप को जानने के लिए अष्टांग नियमों का पालन करना चाहिए, जिसके अंतर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि आते हैं। 
 
यम अर्थात् संयम जिसके अंतर्गत 5 विषय हैं – सत्य, अहिंसा, अस्तेय(चोरी न करना), अपरिग्रह(संपत्ति न रखना) और ब्रम्हचर्य। 
 
इसी तरह नियम के अंतर्गत भी 5 विषय हैं – शौच(शुचिता अर्थात् मन एवं तन की शुद्धि), संतोष(धैर्य), तप (परिश्रम एवं कर्म के प्रति समर्पण), स्वाध्याय(आत्म चिंतन) और ईश्वर के प्रति समर्पण। 
 
इन नियमों का कठोरता पूर्वक यदि कोई पालन करने का प्रयास करता है तो समय के साथ साथ निश्चित ही आत्म साक्षात्कार कर सकेगा और यही उन्होंने कहा भी था कि किसी मनुष्य के जीवन का मूल उद्देश्य ही आत्मसाक्षात्कार करना होता है। 
आत्म साक्षात्कार अर्थात अपने ईष्ट से साक्षात्कार, अपनी आत्मा से साक्षात्कार क्योंकि आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है। मनुष्य की मृत्यु के साथ केवल उसका यह शरीर नष्ट होता है, उसकी आत्मा नहीं। आत्मा फिर अपने कर्मो के अनुसार दूसरा शरीर धारण करती है। सभी संतों, तपस्वियों, ऋषियों, मुनियों, साधकों ने भी यही कहा है और धर्मशास्त्रों में भी स्पष्ट रूप से यही लिखा है कि हम सभी की आत्मा उसी एक परब्रह्म की, उसी एक परमसत्ता की अंश है, अर्थात् हमारी आत्मा परमसत्ता का ही एक स्वरूप है। इसलिए आत्म साक्षात्कार करना, अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को जानना अर्थात् परमसत्ता से साक्षात्कार करना ही सभी मनुष्यों के जीवन का मूल उद्देश्य है और यह केवल धर्म के पथ पर चलते हुए ही संभव है।
 
सभी ने स्पष्ट रूप से धर्म के एक ही लक्षण बताए हैं।
मनु के अनुसार धर्म के 10 मूल लक्षण-
 
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥
 
  • धृति (धैर्य),    
  • क्षमा (दूसरों के द्वारा किए गए अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), 
  • दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), 
  • अस्तेय (चोरी न करना),   
  • शौच (आंतरिक और बाहरी शुचिता), 
  • इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश में रखना), 
  • धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), 
  • विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), 
  • सत्य (मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना); 
 
बौद्ध धर्म के अनुसार आष्टांगिक मार्ग
  • सम्यक दृष्टि – जीव को उचित अनुचित का भेद करके किसी कार्य को करना चाहिए।
  • सम्यक संकल्प – जीव को हिंसा, द्वेष, राग, वासना आदि से मुक्त होने का संकल्प करना चाहिए।
  • सम्यक वचन – जीव को सदैव सत्य बोलना चाहिए।
  • सम्यक कर्म – विषय वासना से रहित कर्म करना ही समय कर्म है।
  • सम्यक जीविका – प्रत्येक जीव को केवल अपने परिश्रम और ईमानदारी से धन उपार्जन करना चाहिए।
  • सम्यक व्यायाम – प्रत्येक जीव को परिश्रम युक्त जीवन व्यतीत करना चाहिए।
  • सम्यक स्मृति – जीव को अपने शरीर मन और वचन से संबंधित प्रत्येक चेष्ठा के प्रति जागरूक रहना चाहिए।
  • सम्यक समाधि – प्रत्येक जीव को अपने चित्त की एकाग्रता बनाए रखनी चाहिए।
 
जैन धर्म के 5 अणुव्रत
  • अहिंसा
  • सत्य 
  • अस्तेय 
  • अपरिग्रह 
  • ब्रह्मचर्य 
 
जैन धर्म के त्रिरत्न – सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक आचरण।
 
पूर्णत: समानताएं होने के बावजूद इन्हें लोग अलग-अलग चश्मे से देखते हैं, अलग अलग नाम से जानते हैं और अलग अलग रूप में मानते हैं। तीनों में एक समान रूप से सभी महात्माओं ने, ऋषि-मुनियों ने अहिंसा एवं परोपकार को सर्वोपरि माना है। सभी ने कर्मवाद और पुनर्जन्म में विश्वास किया है। सभी ने आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता का ज्ञान ही दिया है। इस प्रकार से पूर्णत: एक समान होने के बावजूद इन्हें अलग-अलग देखना धर्म के प्रति अज्ञानता को ही दर्शाता है।
 
इस प्रकार यदि निष्कर्ष निकाला जाए तो परिणाम यही आता है कि सभी महात्माओं ने, ऋषि-मुनियों ने और धर्म शास्त्रों ने धर्म के एक ही स्वरूप की व्याख्या की है। यही धर्म का मूल स्वरूप है, यह सनातन धर्म है, इसी को यूनानियों ने हिंदू धर्म कहा, इसी को बौद्धों ने बौद्ध धर्म कहा, इसी को जैनों ने जैन धर्म कहा। परंतु हमारी मूर्खता, धर्म के प्रति अज्ञानता, विशेषकर तथाकथित धर्मगुरुओं की धर्म के प्रति अज्ञानता और खुद का महिमामंडन कराने की महत्वाकांक्षाओं ने इन महात्माओं और ऋषि-मुनियों द्वारा दिए जा रहे धर्म के मूल स्वरूप के ज्ञान का विरूपण कर दिया, जिससे आज समाज में लगातार धर्म का पतन होता जा रहा है। 
 
 
इन्हीं अष्टांग नियमों का पूर्णत: कठोरता से पालन करते हुए पूर्व काल में इतने तपस्वी हुआ करते थे, ऋषि मुनि हुआ करते थे, साधक हुआ करते थे, जिनके पास असीम शक्तियां होती थी, सामर्थ्य होते थे परंतु आजकल ऐसा कोई भी व्यक्ति दिखाई नहीं देता जिसके पास किसी प्रकार की सामर्थ्य हो, कोई सिद्धि हो, किसी प्रकार की कोई शक्ति हो और न ही कोई आत्म साक्षात्कार करने का प्रयास करता है। इसी वजह से लोगों में यह धारणा बन चुकी है कि जितनी भी चीजें इन पुराणों, वेदों और उपनिषदों में वर्णित है, ये सभी चीजें केवल और केवल मनगढ़ंत कहानियां मात्र हैं, इनमें कोई सच्चाई नहीं है। जबकि वास्तव में अब किसी के अंदर तप करने का सामर्थ्य, दृढ़ता और ईश्वर के प्रति समर्पण ही नहीं रह गया है, परिश्रम करने की, तपस्या करने की भावना और इच्छाशक्ति ही नहीं रह गई है। आजकल लोगों में आलस्य और जड़ता इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि मनुष्य सब कुछ धन दौलत के बल पर प्राप्त कर लेना चाहता है, बैठे-बैठे बिना तप और परिश्रम किए, बिना संघर्षों का सामना किए प्राप्त कर लेना चाहता है। इसीलिए उसे ये सब नियम मिथ्या लगते हैं।
 
 

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