जैन धर्म क्या है | क्या हैं जैन धर्म के सिद्धान्त

जैन धर्म
जैन धर्म: नमस्कार दोस्तों आज हम चर्चा करेंगे जैन धर्म क्या है, इस धर्म को जैन धर्म नाम क्यों दिया गया, इसका नामकरण किसने किया, इसका इतिहास कितना पुराना है, इसके सिद्धांत क्या क्या हैं एवं इस धर्म के कितने तीर्थंकर अब तक हुए हैं और उनके नाम क्या क्या हैं?
जैन धर्म की स्थापना महावीर स्वामी ने की थी, हालांकि महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे एवं यह धर्म पहले से ही व्याप्त था। इस धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे परंतु इस धर्म का नामकरण महावीर स्वामी ने किया था एवं वास्तविक रूप में इसकी स्थापना भी उन्होंने ही की थी। पूरे भारत में इसका प्रचार-प्रसार भी उन्होंने ही किया था एवं इस धर्म की शिक्षाओं को अपने उपदेशों, अपने प्रवचनों के माध्यम से जन जन तक पहुंचाने का काम भी उन्होंने किया था।
 
 

जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों के नाम

 ऋषभदेव, अजीतनाथ, संभवनाथ, अभिनंदन, सुमतिनाथ, पद्मप्रभु, सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभु, सुविधिनाथ, पुष्पदंत, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वसुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, कुंथूनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, मुनि सुब्रतनाथ, नमिनाथ, अरिष्टनेमी, पार्श्वनाथ, महावीर।

 

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को आदिनाथ भी कहा जाता है। 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का नाम ऋग्वेद में भी मिलता है, ऋग्वेद में अरिष्टनेमि को वासुदेव श्री कृष्ण का भाई बताया गया है। 
जैन धर्म के प्राचीनतम सिद्धांतों के उपदेष्टा 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं, जो वाराणसी के निवासी थे। इनका जन्म महावीर स्वामी के जन्म से 250 वर्ष पूर्व हुआ था। इनके पिता काशी नरेश अश्वसेन एवं इनकी माता वामादेवी थीं। इनकी पत्नी का नाम प्रभावती था, जो कुशस्थल की राजकुमारी थीं। जैन ग्रंथों में पार्श्वनाथ को पुरुषादनीयम भी कहा गया है। इनके अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा जाता था
महावीर स्वामी का जन्म समय विवादों में है अर्थात इस पर विद्वानों की एकमतता नहीं है। कुछ जैन विद्वान महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व वैशाली के निकट कुंडग्राम में मानते हैं तो कुछ 599 ईसा पूर्व मानते हैं।
इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो कुंड ग्राम के ज्ञातृक (जांत्रिक) क्षत्रिय कुल के प्रधान थे एवं उनकी माता का नाम त्रिशला था। इनके बचपन का नाम वर्धमान था। इनका विवाह राजा समरवती की कन्या यशोदा के साथ हुआ था। हालांकि इस पर भी जैन अनुयायियों में मतभेद है। श्वेतांबर संप्रदाय को मानने वाले महावीर स्वामी को विवाहित मानते थे जबकि दिगंबर संप्रदाय को मारने वालों का कहना था कि महावीर स्वामी बाल ब्रह्मचारी थे, उन्होंने कभी विवाह नहीं किया था।
 इनकी एक पुत्री भी थी जिसका नाम प्रियदर्शना (अणोज्जा) था। इन्होंने 30 वर्ष की आयु में बड़े भाई नंदीवर्धन की अनुमति लेकर गृह त्याग दिया था। इसके पश्चात इन्होंने वस्त्रों का भी त्याग कर दिया एवं 12 वर्षों तक मौन रखकर कठिन तपस्या की। महावीर गृहस्थों से दान नहीं लेते थे। 12 वर्षों तक विभिन्न प्रकार के कष्टों को सहते हुए जृंभिक नामक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के तट पर साल वृक्ष के नीचे इन्हें केवल्यज्ञान प्राप्त हुआ, जिसके पश्चात इन्हें केवलिन (सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त करने वाला व्यक्ति-केवल्य), जिन (विजेता), निर्ग्रंथ (बंधन रहित), अर्हत (पूज्य) आदि उपाधियां प्राप्त हुईं।
 
ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महावीर स्वामी जगह-जगह भ्रमण करके ज्ञान का प्रसार करने लगे, अपने उपदेशों को अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने लगे। महावीर स्वामी स्वयं को जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का आध्यात्मिक शिष्य कहते थे अर्थात वह पार्श्वनाथ को अपना आध्यात्मिक गुरु मानते थे एवं जैन धर्म के प्रचार में उनके द्वारा प्रतिपादित 4 महाव्रतों में इन्होंने पांचवा व्रत ब्रह्मचर्य जोड़ा था। 
जैन धर्म के ये पांच महाव्रत थे-
अहिंसा(हिंसा न करना),
सत्य(सत्य बोलना), 
अस्तेय(चोरी न करना), 
अपरिग्रह(संपत्ति न रखना) एवं
ब्रम्हचर्य(इन्द्रियों को वश मे रखना)।
जैन विद्वानों का मानना है महावीर स्वामी के दामाद जमालि ही उनके प्रथम शिष्य थे एवं वही उनके ज्ञान प्राप्ति के 14 वर्ष में प्रथम विरोधी भी बने। महावीर स्वामी के सबसे प्रसिद्ध शिष्य मक्खलि पुत्र गोशाल थे, जिन्होंने आजीवक संप्रदाय की स्थापना की थी। मौर्य वंश का द्वितीय शासक बिंदुसार ‘आजीवक संप्रदाय’ का ही अनुयायी था।

जैन धर्म के सिद्धान्त

जैन धर्म में देवी देवताओं के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है परंतु उनका स्थान जिन से नीचे रखा गया है। जैन धर्म में अहिंसा को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। जैन धर्म में युद्ध एवं कृषि दोनों ही वर्जित हैं क्योंकि दोनों में जीवों के प्रति हिंसा होती है। जैन धर्म में पुनर्जन्म एवं कर्मवाद पर विश्वास किया गया है। इसके अनुसार कर्मफल ही मनुष्य के जीवन एवं मृत्यु का कारण बनता है। जैन धर्म संसार की वास्तविकता को स्वीकार करता है परंतु सृष्टि कर्ता के रूप में ईश्वर को मान्यता नहीं देता। 
इसमें मुख्यतः सांसारिक बंधनों से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं, जिसके लिए सम्यक ज्ञान, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक आचरण आवश्यक है। ये तीनों जैन धर्म के त्रिरत्न अर्थात तीन जोहर माने जाते हैं।
 

जैन धर्म में वर्णित ज्ञान

मति:- इंद्रिय जनित ज्ञान 
श्रुति:- श्रवण ज्ञान
अवधि:- दिव्य ज्ञान
मनःपर्याय:-अन्य व्यक्तियों के मन मस्तिष्क का ज्ञान
कैवल्य:- पूर्ण ज्ञान (निर्ग्रंथ एवं जितेंद्रियों द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान)
जैन धर्म ने भी स्वयं को ब्राह्मण धर्म से पूर्णतः अलग नहीं किया था। वास्तव में जैन धर्म ने भी प्राचीन वैदिक धर्म में व्याप्त विसंगतियों को दूर करने का ही प्रयास किया था। बौद्ध धर्म की भांति जैन धर्म ने भी प्राचीन भारतीय धर्म एवं दर्शन को ही पुनर्जीवित करने का प्रयास किया था। महावीर स्वामी ने जैन धर्म के प्रसार के लिए अपने अनुयायियों का एक संघ बनाया था जिसमें स्त्रियों एवं पुरुषों को समान स्थान मिला था। महावीर के अनुयायियों की संख्या 14000 बताई गई है। मौर्यसम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने भी जैन धर्म का प्रचार प्रसार किया था। इसके अलावा जैन धर्म को कलिंग नरेश खारवेल का भी संरक्षण मिला था। जैन धर्म ने वैदिक समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था एवं वैदिक कर्मकांडों की बुराइयों को दूर करने का गंभीर प्रयास किया था। महावीर स्वामी ने ब्राह्मणों द्वारा प्रयोग की जाने वाली संस्कृत भाषा का परित्याग किया एवं अपने उपदेश आम लोगों की बोलचाल की प्राकृत भाषा में दिए। 
चन्द्रगुप्त मौर्य

 

लगभग 300 ईसा पूर्व में मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा जिसके कारण भद्रबाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक चले गए किंतु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रुक गए। भद्रबाहु के वापस लौटने पर मगध के जैन अनुयायियों से उनका गहरा मतभेद हो गया जिसके परिणामस्वरूप जनमत दो भागों में बट गया- श्वेतांबर एवं दिगंबर। स्थूलभद्र के शिष्य श्वेतांबर (जो श्वेत वस्त्र धारण करते थे) एवं भद्रबाहु के शिष्य दिगंबर (जो नग्न रहते थे) कहलाए।

जैन धर्म के पतन का कारण

इस प्रकार आज हमने जैन धर्म एवं दर्शन को जाना, महावीर स्वामी का संक्षिप्त जीवन जाना। हमने जाना कि महावीर स्वामी ने भी महात्मा बुद्ध की ही भांति भारतीय धर्म एवं दर्शन अर्थात प्राचीन वैदिक धर्म को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया था। उस समय की परिस्थितियों में वैदिक धर्म में आई हुई विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया था एवं समाज के सभी वर्गों को साथ जोड़ने के लिए गंभीर प्रयत्न किया। स्त्रियों एवं पुरुषों को समान स्थान दिया एवं ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी। 

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