महाराणा प्रताप की अद्भुत शौर्यगाथा और उनका साहस

महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप एक ऐसे योद्धा जिनका नाम सुनते ही अनेकों शौर्य गाथाएं सामने आने लगती हैं। महाराणा प्रताप एवं उनके प्रिय घोड़े चेतक के पराक्रम को कौन भूल सकता है, महाराणा प्रताप के स्वामी भक्त हाथी रामप्रसाद की स्वामी भक्ति को कौन भूल सकता है, महाराणा प्रताप के स्वाभिमान को, उनकी उस दृढ़ प्रतिज्ञा को कौन भूल सकता है जिसने उन्हें अपने राज्य मेवाड़ को वापस लेने के लिए प्रेरित किया, जिस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिए उन्होंने अनेकों कष्ट सहें। अकबर के मन में महाराणा प्रताप का वह खौफ कौन भूल सकता है कि अकबर सोते समय भी महाराणा प्रताप के नाम से जाग उठता था, सपने में भी महाराणा प्रताप का भय उसे डराता रहता था। 

राणा प्रताप के अद्भुत शौर्य एवं उनके पराक्रम पर अनेकों कविताएं बनी हैं। उनके शौर्य का वर्णन करती एक कविता का कुछ अंश…..

राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।

राणा प्रताप आजादी का, अपराजित काल विधायक है।।

 वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।

आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ सूर्य।।

 राणा प्रताप की खुद्दारी, भारत माता की पूंजी है।

ये वो धरती है जहां कभी, चेतक की टापें गूंजी है।।

पत्थर-पत्थर में जागा था, विक्रमी तेज बलिदानी का।

जय एकलिंग का ज्वार जगा, जागा था खड्ग भवानी का।।

महाराणा प्रताप: एक परिचय

महाराणा प्रताप जो चित्तौड़ के राणा उदय सिंह के पुत्र थे। इनकी माता का नाम जैवंता बाई था। इनका जन्म 6 मई 1540 ई०(1596 विक्रम संवत) को  चित्तौड़ के कुंभलगढ़ किले में हुआ था। चित्तौड़ पर मुगलों की नजर वर्षों से रही है। महाराणा प्रताप के पिता राणा उदय सिंह को भी अकबर से युद्ध करना पड़ा था अकबर ने राणा उदय सिंह को पराजित कर चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया था जिसके बाद इन्हें उदयपुर की पहाड़ियों में जाना पड़ा।

 महाराणा प्रताप का बचपन भील जनजाति के लोगों के साथ बीता था। भील जनजाति के लोग इन्हें अपने पुत्र के समान मानते थे। महाराणा प्रताप को मेवाड़ वापस दिलाने में भील जनजाति के लोगों का अत्यधिक योगदान था। ये लोग तीरंदाजी में निपुण थे। अपनी इस कला के कारण इन्होंने मुगलों को अत्यधिक नुकसान पहुंचाया था हल्दीघाटी के युद्ध में और साथ ही साथ गुरिल्ला युद्ध में भी।

ऐसा माना जाता है की महाराणा प्रताप की लंबाई 7.5 फुट एवं उनका वजन 110 किलो था। वह अपनी छाती पर 72 से 80 किलो का कवच पहनते थे जबकि उनके भाले का वजन 80 किलो था। 40 किलो की दो तलवारें भी म्यान में रखते थे। 

महाराणा प्रताप एवं अकबर के युद्ध के बारे में प्रचलित है अकबर कभी जीते नहीं, महाराणा कभी हारे नहीं।।

महाराणा को झुकाने का अकबर ने अनेकों प्रयास किया, आधे भारतवर्ष की मनसबदारी भी देने का लालच दिया परंतु स्वाभिमानी महाराणा ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए उन्होंने अकबर से युद्ध का विकल्प चुना परंतु सिर नहीं झुकाया।

 अकबर चाहते थे कि महाराणा व्यक्तिगत रूप से अकबर के दरबार में उपस्थित होकर  उनके सामने सिर झुकाएं, उनके सम्मुख नतमस्तक हों परंतु स्वाभिमानी महाराणा के लिए यह असंभव था और उन्होंने आमेर के राजा और अकबर के मनसबदार मानसिंह द्वारा भेजे गए अकबर के इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए मानसिंह से युद्ध क्षेत्र में मिलने की घोषणा कर दी।

अकबर ने आमेर के मनसबदार मानसिंह को बड़ी मुगल फौज के साथ मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिए भेजा। मुगल सेना के सापेक्ष प्रताप की सेना बहुत छोटी थी,  लगभग 5:1 का अनुपात था। फिर भी राणा ने अपने सैनिकों को प्रेरित करते हुए उनका हौसला बढ़ाया और उन्हें कहा कि हर एक मेवाड़ी सैनिक 5-5 मुगलों को मारेगा। राणा प्रताप को इस युद्ध में भील समुदाय ने बहुत सहयोग दिया था। सेना कम होने की वजह से युद्ध क्षेत्र के लिए हल्दीघाटी के मैदान को चुना गया था जो कई ओर से पहाड़ियों से घिरा हुआ था और युद्ध शास्त्र के अनुसार युद्ध में पलड़ा उसी का भारी होता है जो ऊंचाई पर होता है। इस वजह से राणा प्रताप ने अपने सैनिकों को इन पहाड़ियों में तैनात कर दिया था। हल्दीघाटी जो उदयपुर से 40 किलोमीटर दूर स्थित एक पीला दर्रा है जिसे पीला होने की वजह से ही हल्दीघाटी कहा जाता है। वास्तविक युद्ध यहां से 4 किलोमीटर दूर रक्त तलाई में हुआ था। 

जब 21 जून 1576 ई० को मुगल सेना एवं राणा प्रताप की सेना का हल्दीघाटी के मैदान में सामना हुआ तो पहाड़ियों के युद्ध में अनुभव ना होने की वजह से भारी संख्या बल होते हुए भी शत्रु सेना के पांव उखड़ गए और उसे पीछे हटना पड़ा। यहीं पर महाराणा ने गलती कर दी और अपने सैनिकों को पीछे भागती हुई मुगल सेना का पीछा करने का निर्देश दे दिया। महाराणा के सहयोगियों ने उन्हें ऐसा करने को मना किया था और परिणाम वही हुआ जिसका उन्हें भय था। मैदान में आने पर मुगल सेना मेवाड़ी सैनिकों पर भारी पड़ने लगी।

ऐसा प्रसंग प्रचलित है कि महाराणा के पास रामप्रसाद नाम का एक स्वामी भक्त हाथी था जो अत्यंत शक्तिशाली था। ऐसा कहा जाता है कि इसने अकेले ही मुगल सेना के 13 हाथियों को मार डाला था। अकबर इस हाथी को किसी भी हाल में पकड़ना चाहता था। इसके लिए उसने एक योजना बनाई और अनेक महावतों और हाथियों का चक्रव्यू बनाकर इस स्वामिभक्त हाथी को कैद करवा लिया और उसका नाम रखा पीर प्रसाद। उसने उसे भोजन करने के अनेकों प्रयास किए परंतु उस स्वामीभक्त हाथी ने भोजन को ग्रहण नहीं किया और भूखा रहने के कारण लगातार कमजोर होता गया और अपने प्राण त्याग दिए। तब अकबर ने कहा था कि जिस राणा प्रताप के हाथी को मैं नहीं झुका पाया, उस राणा प्रताप को मैं क्या झुका पाऊंगा।

राणा प्रताप के पास इसी तरह एक स्वामी भक्त घोड़ा चेतक था। यह इतिहास का एकमात्र घोड़ा है जिस पर इतनी कविताएं बन चुकी हैं। जिसका इतिहास में इतनी बार जिक्र हो चुका है। जिस की शौर्य गाथा एवं पराक्रम आज भी लोगों की जुबान पर है। 

महाराणा प्रताप के प्रिय घोड़े चेतक पर अनेकों कविताएं बनी हैं जिनमें से सबसे प्रसिद्ध कविता के कुछ अंश……..

रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर

चेतक बन गया निराला था।

राणा प्रताप के घोड़े से¸

पड़ गया हवा को पाला था।

गिरता न कभी चेतक–तन पर¸

राणा प्रताप का कोड़ा था।

वह दोड़ रहा अरि–मस्तक पर¸

या आसमान पर घोड़ा था।।

जो तनिक हवा से बाग हिली¸

लेकर सवार उड़ जाता था।

राणा की पुतली फिरी नहीं¸

तब तक चेतक मुड़ जाता था।।

 

कहा जाता है कि एक बार चेतक एक पैर कटा होने के बावजूद राणा प्रताप को शत्रु सेना से बचाने के लिए 26 फीट के नाले को पार कर जाता है जिसे शत्रु सेना पार नहीं कर पाती। परंतु इतनी बड़ी छलांग लगाने के बाद वह महापराक्रमी अश्व वहीं वीरगति को प्राप्त हो जाता है।

राणा प्रताप के राज्य धर्म एवं नैतिकता के संबंध में भी एक प्रसंग प्रचलित है कि राणा प्रताप युद्ध के दौरान पकड़ी गई शत्रुओं की बेगमों को सम्मान पूर्वक वापस भेज देते थे। उनका मानना था कि युद्ध केवल शत्रुओं से रणभूमि में लड़ा जाता है, हथियारों के दम पर लड़ा जाता है। महिलाएं पूजनीय होती हैं सम्माननीय होती हैं, उन्हें युद्ध बंदी नहीं बनाया जा सकता। जबकि उस दौर में मुस्लिम राजाओं द्वारा युद्ध जीतने पर राज्य की महिलाओं के ऊपर किस प्रकार का अत्याचार किया जाता था, यह जगजाहिर था। राणा प्रताप की इस युद्ध नीति का अकबर भी कायल हो गया था। 

हल्दीघाटी युद्ध में जब मुग़ल सेना मेवाड़ी सैनिकों पर भारी पड़ने लगी तो राणा के सहयोगियों ने उन्हें मैदान से चले जाने को कहा और राणा के छत्र को उनके एक सहयोगी ने स्वयं धारण कर लिया जिससे मुगल सेना उसी को राणा प्रताप समझकर उसी पर वार करने लगी। ऐसा कहा जाता है महाराणा प्रताप इतने ताकतवर थे एक ही वार में मुगल सैनिकों को घोड़े सहित काट देते थे।

 हल्दीघाटी के युद्ध के परिणाम पर अनेक विद्वानों में मतभेद उत्पन्न हो गए हैं। अभी तक फिलहाल यह माना जाता था कि हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना विजयी हुई थी परंतु कुछ इतिहासकारों ने अपने शोध पत्रों के जरिए अब नए दावे किए हैं जिसके आधार पर अब यह माना जा रहा है कि हल्दीघाटी युद्ध में अकबर को पीछे हटना पड़ा था। भारतीय पुरातत्व विभाग भी अब इस विषय पर गहराई से जांच कर रहा है। राजस्थान सरकार ने भी अपने राज्य में पढ़ाई जा रही पुस्तकों में हल्दीघाटी युद्ध के परिणाम बदल दिए हैं।

मेवाड़ के इतिहास का अध्ययन कर रहे इतिहासकार अभिजीत सिंह झाला के अनुसार हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की जीत का आधार यह माना जाता है कि राणा युद्ध क्षेत्र से चले गए थे परंतु वास्तव में राणा युद्धभूमि से गए नहीं थे बल्कि उन्हें भेजा गया था ताकि वे सुरक्षित रह सकें। जब आप यहां से आगे चलेंगे तो यह पाएंगे कि यह युद्ध यहीं पर समाप्त नहीं हुआ था बल्कि यहीं से राणा ने गुरिल्ला युद्ध आरंभ किया था और इसी के जरिए उन्होंने अपने तमाम क्षेत्र वापस भी ले लिए और पुनः मेवाड़ पर भी अधिकार कर लिया था।

महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक मेवाड़ आजाद नहीं होगा, वे महलों को छोड़ जंगलों में निवास करेंगे। स्वादिष्ट भोजन को त्याग कंद-मूल और फलों से ही पेट भरेंगे, लेकिन अकबर का आधिपत्य कभी स्वीकार नहीं करेंगे। 

ऐसा माना जाता है कि जब राणा प्रताप की मृत्यु हुई थी तो अकबर भी फूट फूट कर रोया था। अकबर अपने पूरे जीवन में मेवाड़ को कभी भी पूरी तरह से अपने अधिकार में नहीं कर सका। भले ही वह किसी युद्ध में महाराणा प्रताप पर भारी पड़ता था परंतु वह मेवाड़ को अधिक समय तक अपने कब्जे में ना रख सका। महाराणा प्रताप ने अकबर की सैनिक टुकड़ियों को कई बार छापामार युद्ध में पराजित किया था और इसी प्रकार मेवाड़ को फिर से अपने अधिकार में कर लिया था।

 

राजस्थान के इतिहासकार डॉ चंद्रशेखर शर्मा ने एक शोध पत्र जारी किया है कि महाराणा प्रताप युद्ध के बाद भी वहां जमीनों के पट्टे जारी किया करते थे और नियमानुसार जमीनों के पट्टे वही जारी कर सकता था जिसका जमीन पर अधिकार हो। इसके अलावा वहां खुदाई में महाराणा प्रताप के नाम के ही सिक्के मिले थे और आज भी मिलते हैं। इस आधार पर हल्दीघाटी का युद्ध उन्होंने ही जीता होगा।

 उन्होंने इसका उदाहरण भी दिया कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की सेना को स्पष्ट निर्देश दिया गया था कि उन्हें महाराणा प्रताप जिंदा अथवा मुर्दा किसी भी हाल में चाहिए जबकि मुगल सेना उन्हें पकड़ने में असफल रही तो इस आधार पर बताइए कि जीत किसकी हुई।

इसके अलावा एक और उदाहरण उन्होंने दिया  कि मुगल सेनापति मानसिंह जब हल्दीघाटी युद्ध के बाद अकबर के दरबार में पहुंचे तो अकबर ने उनकी ड्योढी बंद करवा दी ड्योढी अर्थात अब वे मुगल राज दरबार में नहीं आ सकते थे। अगर मानसिंह हल्दीघाटी का युद्ध जीतकर पहुंचे होते हैं जो उन्हें इनाम देने का स्थान पर अकबर ने उनकी ड्योढी क्यों बंद की।

फिलहाल हल्दीघाटी का युद्ध परिणाम इस समय शोध का विषय है और ASI ने अकबर को विजयी बताने वाले चित्तौड़ में लगे हुए शिला पट्ट को भी हटा दिया है और इस विषय पर फिलहाल जांच कर रहा है। उम्मीद है शीघ्र ही एक नए इतिहास का लेखन किया जाएगा। संप्रभु भारत का एक नया इतिहास जो तथ्यों पर आधारित होगा, जो साक्ष्यों पर आधारित होगा क्योंकि अक्सर ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि मुस्लिम, यूनानी एवं वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास को कुंठित करने का प्रयास किया है। उन्होंने निष्पक्ष रुप में भारतीय इतिहास का लेखन नहीं किया है। अक्सर भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन क मांग उठती रही है, ताकि हम भारतीयों को भारत की समृद्ध संस्कृति का ज्ञान हो सके, भारत की प्राचीन संस्कृति को पुनर्जीवित किया जा सके, भारत के प्राचीन गौरव का पुनरुत्थान किया जा सके एवं भारत को फिर से विश्वगुरु बनाया जा सके, उन पदों का अनुसरण किया जा सके जिन पदों पर चलकर प्राचीन भारत विश्व गुरु था।

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