शास्त्रों के अनुसार धर्म क्या है | जानिए धर्म की व्यापकता और वास्तविकता

धर्म की व्यापकता

धर्म की व्यापकता: नमस्कार दोस्तों, आनंद सर्किल में आप सभी का स्वागत है। आज हम चर्चा करेंगे धर्म क्या होता है? धर्म एक ऐसा विषय है जो आजकल हर किसी की जुबान पर हर किसी के मस्तिष्क में रहता है। धर्म के नाम पर आज तरह-तरह के आडंबर भी होते हैं। धर्म के नाम पर आज समाज में बहुत अधिक विसंगतियां व्याप्त हो चुकी हैं। बिना धर्म का मर्म जाने, बिना धर्म का अर्थ जाने, बिना धर्म को जाने लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे को मारने को तैयार हो जाते हैं।

वास्तव में “धर्म क्या है” यह किसी को नहीं पता, सिर्फ धर्म के नाम पर युवाओं को बरगलाया जाता है, युवाओं के जोश को उनके गर्म खून को अपने निजी स्वार्थ में प्रयोग किया जाता है। अपने निजी लाभ के लिए लोगों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ा दिया जाता है जबकि वास्तव में “धर्म क्या है”  ये खुद को धर्मगुरु कहने वाले लोग भी नहीं जानते। 
आजकल होता क्या है लोग धर्म को अलग-अलग नाम दे देते हैं जैसे बौद्ध धर्म, जैन धर्म, हिंदू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, यहूदी धर्म, प्रोस्टेट धर्म, कैथोलिक धर्म और न जाने कितने कितने नाम दे चुके हैं धर्म को जबकि धर्म तो सदैव से एक रहा है, सदैव से सनातन रहा है। धर्म तो वही है जिसे हम सनातन धर्म कहते हैं। सनातन धर्म जो सदैव से सत्य था और सदैव सत्य रहेगा। 
वास्तव में जिसे लोग धर्म का नाम दे देते हैं, वह धर्म नहीं बल्कि एक मत है, एक विशेष प्रकार की परंपराओं को मानने वालों का एक समूह, जिसे एक संप्रदाय कहा जा सकता है, धर्म नहीं क्योंकि धर्म तो सदैव एक ही है, वह अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग नहीं होता। हां अलग-अलग परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार परिवर्तित हो सकता है परंतु अलग-अलग लोगों के लिए धर्म नहीं बदलता। 

अंग्रेजी में धर्म को Religion कहा जाता है। वास्तव में धर्म Religion से उसी प्रकार अलग है, जिस प्रकार संविधान कॉन्स्टिट्यूशन से अलग है, जिस प्रकार दर्शन Philosphy से अलग है। धर्म को Religion कहना हमारी मजबूरी है। वास्तव में Religion का अर्थ पंथ, मत, संप्रदाय अथवा मजहब होता है, धर्म नहीं।

धर्म की व्यापकता: सनातन धर्म 

अनेक शोधों में अनेक साक्ष्यों के आधार पर यह प्रमाणित हो चुका है कि सबसे पुराना सबसे प्राचीन धर्म सनातन धर्म ही है। प्राचीन काल में भी अलग-अलग परंपराओं को मानने वाले लोगों का समूह था परंतु इसे अलग-अलग धर्म नहीं बल्कि अलग-अलग मत या संप्रदाय के रूप में जाना जाता था।  आज के समय में इसमें अनेक विसंगतियां आ गई हैं, आज अलग-अलग परंपराओं को मानने वाले लोगों के समूहों को एक धर्म का नाम दे दिया जाता हैं, जबकि प्राचीन काल में ऐसा नहीं था।
प्राचीन काल में भगवान शिव को मानने वालों को शैव संप्रदाय, भगवान विष्णु को मानने वालों को वैष्णव संप्रदाय कहा जाता था। इसी प्रकार से बौद्ध मत, जैन मत, नाथ संप्रदाय, लिंगायत संप्रदाय आदि अलग-अलग नाम दिया जाता था। परंतु आज क्या होता है, आज कुछ विशेष परंपराओं, रीति-रिवाजों कर्मकांडों क्रिया-कलापों आदि को मानने वाले लोगों के समूह को अलग-अलग धर्म का नाम दे दिया जाता है, जिससे लोगों के अंदर एक विभेद की, भेदभाव की, भिन्नता की भावना पैदा हो रही है।
आज लोग स्वयं को भिन्न परंपरा भिन्न रीति रिवाज मानने वालों से अलग मानते हैं, यह भेदभाव, भिन्नता एक राष्ट्र के लिए, मानवता के लिए अत्यधिक हानिकारक है। जिन धर्मगुरुओं के कंधे पर लोगों को धर्म का ज्ञान देने की जिम्मेदारी होती है वह लोगों को धर्म का ज्ञान देने के स्थान पर धर्म के बारे में मिथ्या प्रचार करते हैं, लोगों को एक दूसरे से दूर करते हैं, धर्म के नाम पर लोगों को बांटते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वास्तव में हम उन्हें धर्मगुरु की संज्ञा तो दे देते हैं परंतु धर्म का ज्ञान उन्हें खुद ही नहीं होता।
 

सनातन धर्म के ग्रंथों में धर्म की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं, जैसे 

“यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।।”
अर्थात धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है।
 
“स्वकर्मनिरतो यस्तु धर्म: स इति निश्चयः।।”
अर्थात अपने कर्म में लगे रहना निश्चय ही धर्म है।
जैसे कि आग का धर्म है जलना, धरती का धर्म है धारण करना और जन्म देना, हवा का धर्म है जीवन देना, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति का गुण, उसका कर्म ही धर्म है। अब जैसे कि बिच्छू का धर्म है काटना, शेर का धर्म है मारना। कुछ लोग तर्क कर सकते हैं कि चोर का स्वभाव है चोरी करना तो यह भी उसका धर्म हुआ परंतु धर्म जन्मजात गुणों के कारण होता है। चोर जन्मजात नहीं होता, वह अपने द्वारा चुने हुए कर्मों से बनता है  जबकि बिच्छू का गुण जन्मजात होता है, शेर का गुण जन्मजात होता है, अग्नि का गुण, हवा का गुण भी प्राकृतिक होता है, यह उन्होंने स्वयं नही चुना है। इसलिए मनुष्य के जन्मजात गुणों और कर्मों को उसका धर्म कह सकते हैं लेकिन उसके कर्म से किसी को हानि नहीं होनी चाहिए। जैसे डॉक्टर का धर्म होता है रोगी का इलाज करना, राजा का धर्म होता है लोक हित में कार्य करना, प्रजा की देखभाल करना, उसे खुश रखना, सैनिक का धर्म होता है अपने राष्ट्र की रक्षा करना तो इस प्रकार यह उनका धर्म हुआ परंतु चोरों, डाकुओं के कर्मों को उनका धर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसे उन्होंने अपने निजी लाभ के लिए चुना है, किसी का हित करने के लिए नहीं।
 
“उदार मेव विद्वांसो धर्म प्राहुर्मनीषिणः।।”
अर्थात् विद्वान लोगों ने उदारता को ही धर्म कहा है।
 
“सत्यं धर्मस्तपो योगः।।”
अर्थात सत्य ही धर्म है, सत्य ही तप है और सत्य ही योग है।
 
“दातव्यमित्ययम् धर्म उक्तो भूतहिते रतैः।।”
अर्थात सभी प्राणियों के हित में कार्य करने वाले व्यक्तियों ने दान को ही धर्म बताया है।
 
धर्म का शाब्दिक अर्थ – धर्म एक संस्कृत शब्द है और धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। धर्म को एक निश्चित परिभाषा दे पाना लगभग असंभव है। साधारणतया धर्म होता है जिसे हम धारण कर सकें धारयति इति धर्म: अर्थात उन गुणों के समूह को, उन कर्मों के समूह को हम धर्म कह सकते हैं जिसे हम धारण कर सकें, जिसे हम ग्रहण कर सकें, जिससे किसी की हानि ना हो, जिसमें आत्म कल्याण के साथ-साथ विश्व कल्याण की भावना निहित हो, पर कल्याण की भावना निहित हो। 
 
सनातन धर्म ग्रंथों में धर्म के कुछ विशेष लक्षण बताए गए हैं जैसे-

“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥”

 

धृति (धैर्य),
क्षमा (दूसरों के द्वारा किए गए अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना, हिंसा न करना),
दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना),
अस्तेय (चोरी न करना),
शौच (आंतरिक और बाहरी शुचिता),
इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश में रखना),
धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग),
विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा),
सत्य (मन, वचन और कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना); 

बौद्ध मत के आष्टांगिक मार्ग को समझिए

सम्यक दृष्टि (वस्तुओं को उनके वास्तविक स्वरूप में देखना}
सम्यक संकल्प (भौतिक सुखों के प्रति आकर्षण का त्याग करना)
सम्यक वाक् (सदैव सत्य बोलना)
सम्यक कर्मांत (सदैव सत्य कर्म करना)
सम्यक जीविका (सदाचार पूर्वक आजीविका अर्जित करना)
सम्यक व्यायाम (नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहना)
सम्यक स्मृति (अंधविश्वासों का, मिथ्या धारणाओं का त्याग कर देना एवं वास्तविक अवधारणाओं को स्मरण रखना)
सम्यक समाधि (मन की एकाग्रता)

जैन मत के ये पांच महाव्रत थे-

अहिंसा(हिंसा न करना),
सत्य(सत्य बोलना),
अस्तेय(चोरी न करना),
अपरिग्रह(संपत्ति न रखना) एवं
ब्रम्हचर्य(इन्द्रियों को वश मे रखना)।

 
उपर्युक्त सभी का विश्लेषण करने पर आप पाएंगे कि इनमें से किसी ने भी किसी एक चीज का विरोध नहीं किया है। यदि तीनों का सामूहिक रूप से समावेश किया जाए तो तीनों एक ही हैं। इस प्रकार से हम इन्हें अलग-अलग धर्म के रूप में बांट ही नहीं सकते क्योंकि तीनों एक ही कर्म को धर्म बता रहे हैं। सभी ने एक ही चीज को सत्य बताया है और लोगों को उसे अपने जीवन में मानने के लिए प्रेरित किया है उपदेश दिया है।
 
इन सभी ने अहिंसा को ही सर्वोपरि धर्म माना है। सनातन धर्म में एक श्लोक प्रचलित है अहिंसा परमो धर्म: धर्म हिंसा तथैव च अर्थात अहिंसा सर्वोपरि, सर्वोत्तम धर्म है परंतु धर्म के लिए हिंसा का सहारा लिया जा सकता है अर्थात जब धर्म की हानि हो रही हो कोई व्यक्ति किसी दीन दुखिया पर अत्याचार कर रहा हो, किसी असहाय को सता रहा हो, उन्हें मार रहा हो तो यहां पर हिंसा का सहारा लेना ही धर्म है, यहां हम चुपचाप “अहिंसा परमो धर्मः” मानकर बैठ नहीं सकते। जब अपने राष्ट्र पर दुश्मन हमला करते हैं तो उस समय देश के नागरिकों का, देश के सैनिकों का धर्म होता है देश की रक्षा के लिए दुश्मन सैनिकों का वध करें, उस समय हम “अहिंसा परमो धर्म:” मानकर चुप नहीं हो सकते वहां हमें “धर्म हिंसा तथैव च” का सहारा लेना पड़ेगा क्योंकि यहां हिंसा करना धर्म है।
 
प्राचीन काल में दो ही शब्द प्रचलित थे- धर्म और अधर्म अर्थात जो लोगों पर अत्याचार करते थे, लोगों को सताते थे, मारते थे, परेशान करते थे, उन्हें अधर्मी कहा जाता था, उन्हीं को राक्षस, असुर, दैत्य कहा जाता था और उनके द्वारा किए गए कार्यों को अधर्म माना जाता था और इसके विपरीत जो लोगों की सेवा करते थे, लोगों को दान देते थे, गरीबों को दान देते थे, असहायों की, दीन दुखियों की मदद करते थे, विद्वानों का सम्मान करते थे, अतिथियों का सम्मान करते थे, अतिथियों को देवों के समान मानते थे, उन्हें धर्मात्मा कहा जाता था, उन्हीं को देवता कहा जाता था और उनके कर्मों को ही धर्म माना जाता था। परंतु आज के समय में तो अधर्म नामक कोई चीज ही नहीं रह गई है, हर कर्म को धर्म कह दिया जाता है। उसे अलग-अलग नाम दे दिया जाता है। वास्तव में यही धर्म की हानि है। महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए भगवान श्री कृष्ण ने कहा था

यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ॥     

              —-श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-4

अर्थात जब जब भारत (विश्व) में धर्म की हानि होगी अधर्म का उत्थान होगा साधुओं को सज्जनों को सत्कर्म करने वाले लोगों को सताया जाएगा उन्हें मारा जाएगा उनका विनाश किया जाएगा तब तब धर्म की स्थापना के लिए हर युग में ईश्वर का अवतार संभव होगा अर्थात मैं जन्म लूंगा।
खैर ईश्वर का अवतार कब होना है, कहां होना है, कैसे होना है, यह हमारा विषय नहीं है।

धर्मनिरपेक्षता एवं पंथनिरपेक्षता में अंतर

जिस प्रकार से लोगों के अंदर धर्म के प्रति अज्ञानता भर गई है, उसी प्रकार से आजकल एक शब्द प्रचलित हो रहा है धर्मनिरपेक्षता। अंग्रेजी में इसके लिए Secular शब्द का प्रयोग हुआ है वास्तव में धर्मनिरपेक्षता भी सेकुलर से भिन्न है। Secular शब्द का अर्थ पंथनिरपेक्षता, मतनिरपेक्षता होता है, धर्मनिरपेक्षता नहीं।  राजनीति की बात की जाए तो संविधान में यह कहा गया है कि देश का शासन पंथनिरपेक्ष होगा, Secular होगा। संविधान में Secular शब्द का प्रयोग हुआ है, अब लोग इस शब्द के अनेक अर्थ निकालते हैं। पंथनिरपेक्षता, मतनिरपेक्षता आदि तो ठीक है परंतु धर्मनिरपेक्षता इस शब्द का सटीक अर्थ नहीं हो सकता क्योंकि धर्म के बगैर राजनीति का सार लोकहित में नही हो सकता। हर कर्म के दो ही पहलू होते हैं या तो वह कर्म धर्म होगा या तो अधर्म। अगर राजनीति को धर्म से अलग किया गया तो इसका अर्थ है राजनीति का भाव अधर्म है अर्थात राष्ट्र का शासक और शासन धर्म पर आधारित ना होकर अधर्म पर चल रहा है। सेकुलर शब्द का अर्थ यह है कि राष्ट्र का शासन किसी विशेष पंथ को, मजहब को आश्रय नहीं देगा जैसा कि प्राचीन काल में होता आया था, सम्राट अशोक ने बौद्ध मत को संरक्षण दिया था, सम्राट चंद्रगुप्त ने जैन मत को संरक्षण दिया था, कनिष्क ने बौद्ध मत को संरक्षण दिया था, मुगलों और तुर्कों के काल में इस्लाम को संरक्षण प्राप्त था, अंग्रेजों के काल में ईसाई मिशनरियों को संरक्षण प्राप्त था। पंथनिरपेक्षता अर्थात सेकुलर इसीलिए संविधान में शामिल किया गया था कि देश का शासन किसी विशेष परंपराओं को किसी विशेष रीति-रिवाजों को मानने वाले लोगों को संरक्षण ना दे किसी विशेष परंपरा को संरक्षण ना दें। इस शब्द का अर्थ भी यह है कि देश में रहने वाले सभी लोग स्वतंत्रता पूर्वक अपने रीति रिवाज, अपनी परंपराओं का निर्वहन कर सकते हैं। किसी भी प्रकार से उन पर किसी भी परंपरा को मानने से, किसी भी रीति रिवाज को मानने से प्रतिबंधित नहीं किया जाएगा और न ही उन्हें किसी विशेष परंपरा अथवा मत को मानने को बाध्य किया जाएगा।
परंतु आधुनिक दौर में इस सेकुलर शब्द के गलत अर्थ निकाले जा रहे हैं और जमकर इसका दुरुपयोग किया जा रहा है। Secular शब्द की आड़ में पूरे भारत में अवैध रूप से जबरन मत अंतरण का खेल चल रहा है। भारत के पिछड़े वर्ग, दलितों, असहायों, गरीबों को भय, लालच, लोभ आदि के फेर में फंसा कर पूरे भारत में जबरन मत अंतरण चल रहा है। लोगों को लालच देकर के तो कहीं भय दिखा कर के मत परिवर्तित करवाया जा रहा है, जबरन उन्हें किसी विशेष परंपरा को मानने को बाध्य किया जा रहा है, लव जिहाद का खेल भी भारत में बहुत तेजी से पांव पसार रहा है। इस तरह के छल कपट करके मासूम लड़कियों को अपने प्रेम जाल में फंसा कर उनका शारीरिक शोषण कर जबरन उनका मत अंतरण किया जा रहा है। इन सभी घटनाओं को देखते हुए अब भारत में इस तरह के जबरन मतांतरण को रोकने के लिए कानून बनाने का वक्त आ गया है।

धर्म की व्यापकता 

आज के इस दौर में लोगों को धर्म की प्रासंगिकता समझनी होगी। धर्म एक व्यापक विषय है, शब्दों में इसकी एक सीमित व्याख्या कर पाना असंभव है। विदेशों में धर्म का अर्थ सिर्फ आस्था से जुड़ा हुआ है जबकि भारत में धर्म आस्था के साथ साथ कर्म, गुण, स्वभाव और कर्तव्य से भी जुड़ा है। इस वजह से सेकुलर शब्द जो विदेशों से भारतीय संविधान में शामिल किया गया था, भारतीय मान्यताओं के अनुसार उसका अर्थ धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता। कोई भी शासन धर्म के बगैर चलाना अहितकर ही होगा। भारतीय धर्म एवं दर्शन में प्राचीन काल से ही धर्म एवं अधर्म पर चर्चा होती आई है। महाभारत काल में धर्म एवं अधर्म के बीच महा युद्ध हुआ था जिसे धर्मयुद्ध का नाम दिया गया था। जहां धर्मयुद्ध का अर्थ यह नहीं है कि किसी विशेष मत या संप्रदाय के विरुद्ध युद्ध बल्कि किसी विशेष प्रवृत्ति वाले लोगों के विरुद्ध युद्ध, उनके अवगुणों के विरुद्ध युद्ध, उनके स्वभाव के विरुद्ध युद्ध, उनकी आसुरी प्रवृत्ति के विरुद्ध युद्ध, उसे धर्मयुद्ध कहा गया था। इसी प्रकार रामायण काल में भी श्री राम एवं रावण के मध्य धर्मयुद्ध हुआ था।
उम्मीद करते हैं कि आप सभी को धर्म के बारे में अपनी समझ बताने में कुछ हद तक सफल हो सकें।

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