स्वामी विवेकानंद कौन थे? उनके विचार क्या थे?
नमस्कार दोस्तों आनंद सर्किल में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। आज हम चर्चा करेंगे स्वामी विवेकानंद के बारे में, उनका व्यक्तित्व कैसा था, उनके विचार कैसे थे, उन का प्रारंभिक जीवन कैसा था, उनके सिद्धांत क्या थे, इस आर्टिकल में हम इन्हीं सब चीजों को विस्तार से पढ़ेंगे।
स्वामी विवेकानंद एक ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनके बारे में किसी भी धर्म का कोई भी व्यक्ति बुरे विचार नहीं रख सकता। हर व्यक्ति उन्हे अपना आदर्श मानता है, भले ही वह हिंदू धर्म के, हिंदुत्व के विचारक रहे हों, भले ही वह वेदांत के विख्यात एवं प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु रहे हों, भले ही उन्होंने हिंदू धर्म एवं दर्शन का प्रसार किया हो फिर भी उनके प्रति कोई भी किसी भी प्रकार का वैमनस्य नहीं रख सकता क्योंकि स्वामी विवेकानंद ने कभी भी धर्म भेद, जातिभेद, वर्ण भेद आदि को महत्व नहीं दिया। उन्होंने कभी भी सांप्रदायिक विभेद को महत्त्व नहीं दिया। उन्होंने लोगों को आत्मज्ञान दिया। उन्होंने लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान दिया। उन्होंने युवाओं को प्रेरित किया। युवा उन्हें अपना आदर्श मानते हैं। उन्होंने देश के युवाओं के हृदय में एक अमिट छाप छोड़ी है। आज भी वह सभी युवाओं के लिए आदर्श हैं। संपूर्ण भारत में विद्यार्थियों के अखिल संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद(ABVP) के आदर्श भी स्वामी विवेकानंद ही हैं। स्वामी विवेकानंद के नाम पर आज देश भर में अनेक संस्थाएं चल रही हैं।
आइए जानते हैं स्वामी विवेकानंद का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली, इतना विशाल किस प्रकार से बना?
स्वामी विवेकानंद जिन्होंने संपूर्ण विश्व में भारतीय धर्म एवं दर्शन का प्रसार किया, वास्तव में प्रारंभिक जीवन में उनका नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनका जन्म 12 जनवरी 1863 ई० को कलकत्ता (कोलकाता) में हुआ था। इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त एवं माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। इनके भाई का नाम भूपेंद्रनाथ दत्त था। प्रारंभ से ही इनकी रूचि संगीत, साहित्य एवं दर्शन मे थी। इन्हें तैराकी करने का भी शौक था, घुड़सवारी और कुश्ती में भी हाथ आजमाया करते थे। प्रारंभ से ही उन्हें जीवन के सत्य की तलाश थी। उन्होंने सभी धर्मों के प्रमुख धर्म शास्त्रों का अध्ययन किया था। वेद, पुराण, उपनिषद, वेदांत, बाइबल, कुरान, गुरु ग्रंथ साहिब आदि सभी ग्रंथों को उन्होंने पढ़ा था।
इन सभी ग्रंथों को पढ़कर उनमें तर्कशीलता का भाव पैदा हो गया। सत्य को जानने की तलाश में वह इधर उधर भटकने लगे। प्रारंभ में वह ब्रह्म समाज से भी जुड़े परंतु वहां उन्हें संतुष्टि नहीं मिली। वह इधर-उधर घूमते हुए अनेक साधु-संतों से मिलते थे, उनसे शास्त्रार्थ करते थे, तर्क करते थे किंतु उन्हें कोई भी संतुष्ट नहीं कर पाता था। तर्कशीलता एवं सत्य को जानने की भूख ने उन्हें काफी नास्तिक बना दिया था। हर कार्य में वे तर्क करते थे। मूर्ति पूजा का भी विरोध करते थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास भी वह तर्क करने ही पहुंचे थे किंतु स्वामी रामकृष्ण के संपर्क में आने पर उन्हें आध्यात्मिकता का ज्ञान हुआ। स्वामी रामकृष्ण के व्यक्तित्व एवं उनके उपदेशों से नरेंद्रनाथ दत्त बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने नरेंद्र से कहा तुमने बुद्धि का प्रयोग बहुत कर लिया, अब अपनी विवेक का प्रयोग करो। तर्क से जीवन का सत्य नहीं जाना जा सकता। जीवन के सत्य को जानना है तो विवेकवान बनना होगा, आध्यात्मिक मार्ग अपनाना होगा। उन्होंने ही नरेंद्र का नाम विवेकानंद रखा। वास्तव में स्वामी रामकृष्ण परमहंस को वास्तविक प्रसिद्धि स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व एवं उनके प्रभावशाली उपदेशों से ही मिली।
स्वामी रामकृष्ण के बारे में कहा जाता है कि वह अपने शिष्यों को ध्यान एवं योग की शिक्षा देते देते स्वयं समाधिस्थ हो जाते थे, ध्यान में पूरी तरह से मग्न हो जाते थे। उनके बारे में एक रहस्य प्रचलित है कि उनका मां काली से साक्षात्कार होता था। ऐसा कहा जाता है कि एक बार एक व्यक्ति उनके पास आकर बोला कि जब मां काली आपके पास आएं तो उन्हें मेरे पास भेज देना क्योंकि मैं उनसे मिलना चाहता हूं और मेरे पास इतना वक्त नहीं कि मैं यहां बैठकर उनका इंतजार कर सकूं। इस पर स्वामी जी ने कहा ठीक है, भेज दूंगा लेकिन अपना पता तो दो जब उस व्यक्ति ने अपना पता देना चाहा तो स्वामी जी ने टोकते हुए कहा, यह तो तुम्हारे घर या ऑफिस का पता है, वहां मां नहीं जाएंगी। तुम अपना बता दो जो तुम्हारे हृदय का है, जहां तुम्हारी आत्मा निवास करती है। तुम मां से अवश्य मिल सकते हो परंतु पहले तुम्हें स्वयं से मिलना होगा, स्वयं को जानना होगा, स्वयं का साक्षात्कार करना होगा। ईश्वर हमारे हृदय में ही निवास करते हैं। हम फिर भी उन्हें इधर उधर ढूंढते रहते हैं। यदि तुम अपनी आत्मा को जान लेते हो, समझ लेते हो तो तुम भी मेरी तरह मां से साक्षात्कार कर सकोगे।
स्वामी रामकृष्ण के उपदेशों एवं उनके रहस्यमयी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही विवेकानंद उनके शिष्य बने थे। उन्होंने अपनी अनन्य गुरु भक्ति, समर्पण एवं निष्ठा से अपने गुरु के उत्तम आदर्शों को प्राप्त किया एवं संपूर्ण विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार किया। अब वह अपने उपदेशों में ना तो मूर्ति पूजा का समर्थन करते थे और ना ही विरोध। उन्होंने आत्मा के रहस्य को, सत्य को जानने के लिए लोगों को प्रेरित किया। वे सत्य को जानने का उपदेश देते थे। वे कहते थे कि आध्यात्मिक मार्ग ही सत्य और परम ब्रह्म को समझने का एकमात्र मार्ग है। इसी मार्ग पर चलकर जीवन के रहस्य को, आत्मा की सूक्ष्मता और अमरता को जाना जा सकता है। उनका मानना था कि आध्यात्मिकता, ध्यान एवं योग ही तत्वज्ञान को जानने एवं समझने का एकमात्र साधन है। उन्होने भारतीयो को राष्ट्र धर्म का पालन करने एवं राष्ट्र से प्रेम करने का उपदेश दिया था और साथ ही नागरिकों मे राष्ट्रीयता पर गर्व करने और देश के उन्नत भविष्य के लिए एकजुटता, सहिष्णुता और समभाव की आशा की थी।
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25 वर्ष की अवस्था में ही विवेकानंद ने गेरुआ वस्त्र धारण कर सन्यास ग्रहण कर लिया था और इसके पश्चात पैदल ही पूरे भारतवर्ष में घूम घूम कर धर्म एवं आध्यात्मिक दर्शन का प्रसार करने लगे।
सन 1893 ई० में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। पूरे विश्व के अनेक धर्मों के धर्मगुरु वहां उपस्थित थे। स्वामी विवेकानंद भी वहां भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे थे। तत्कालीन परिस्थितियों में यूरोप एवं अमेरिका वासी भारतीयों को बहुत ही हेय दृष्टि से देखते थे। उन लोगों की नजर में भारतीयों का अस्तित्व शून्य था, इसीलिए उन्होंने विवेकानंद के नाम के आगे भी शून्य रखा था। उन लोगों ने काफी प्रयत्न किया था कि स्वामी विवेकानंद को वहां बोलने का अवसर ही ना मिले लेकिन एक अमेरिकन प्रोफ़सर की मदद से उन्हें अपने विचार व्यक्त करने का थोड़ा समय मिला परंतु वहां भी उन्हें अपमानित करने का बहुत प्रयास किया गया। चूंकि उन लोगों ने भारत को शून्य कह कर अपमानित किया था, इसलिए उन्होंने अपने संबोधन में शून्य पर ही उपदेश दिया, शून्य पर ही अपने विचार व्यक्त किए। उनका विचार एवं उनका संबोधन “My dear brothers and sisters of America” सुनकर वहां मौजूद सभी विद्वान चकित रह गए, पूरा संसद तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। पहली बार संपूर्ण विश्व को भारतीय धर्म एवं दर्शन की वास्तविक एवं वसुधैव कुटुंबकम की छवि देखने को मिली। वसुधैव कुटुंबकम का वह भाव जो दुनिया के किसी अन्य धर्म एवं दर्शन में नहीं था उसे भारतीय धर्म में, भारतीय दर्शन में सुनकर सभी अत्यधिक प्रभावित हुए। पहली बार विश्व को हिंदू धर्म एवं हिंदुत्व की वास्तविकता तथा समग्रता का आभास हुआ। उसके बाद अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहां उनके शिष्यों का एक बड़ा वर्ग बन गया। वे लगभग 3 वर्षों तक अमेरिका में ही रहे और भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति का प्रकाश फैलाते रहे।
भारत लौटने पर 1 मई 1897 ई० को कोलकाता में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जिसका सिद्धांत था “आत्मनो मोक्षार्थों जगत् हिताय च”।
संपूर्ण विश्व में भारतीय धर्म एवं दर्शन का प्रसार करने वाले वेदांत के सुप्रसिद्ध विख्याता एवं आध्यात्मिक मार्ग का उपदेश देने वाले स्वामी विवेकानंद का 4 जुलाई 1902 ई० को बेलूर मठ, हावड़ा में मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में ही निधन हो गया था मगर आज भी वे सभी युवाओं के हृदय में निवास करते हैं, आज भी सभी युवाओं के प्रेरणा स्रोत हैं। आज भी उनका नाम सुनकर, उनका नाम लेने से हम सभी को गर्व की अनुभूति होती है। स्वामी विवेकानंद ने मात्र 39 वर्ष की छोटी सी आयु में ही संपूर्ण विश्व को आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने एवं सत्य को जानने का मार्ग दिखा दिया था।