ये नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं, है अपना यह त्यौहार नहीं

नव वर्ष

नव वर्ष: नमस्कार दोस्तों, आनंद सर्किल में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। इस समय पूरा देश पूरा विश्व नए साल का जश्न मना रहा है। भारत में भी लोग अनेक जगहों पर अनेक प्रकार से नए साल का जश्न मना रहे हैं और इसका स्वागत कर रहे हैं। साथ ही यह आशा यह उम्मीद भी कर रहे हैं कि यह नया वर्ष पिछले 2 वर्षों की भांति इस बार भी कोरोना से प्रभावित ना हो। इस बार हमें कोरोना से मुक्ति मिल जाए, यह प्रार्थना भी कर रहे हैं, क्योंकि पिछले 2 वर्षों से पूरा विश्व कोरोना महामारी से जूझ रहा है।

सभी देशों की अर्थव्यवस्थायें बुरी तरह से प्रभावित हो चुकी हैं। सभी देशों में लोगों की आर्थिक स्थिति बुरी तरह से प्रभावित हुई है। बहुत लोगों ने अपनों को खोया है इस महामारी के दौर में, वे सभी लोग इस नए वर्ष में यह आशा कर रहे हैं कि इस बार कुछ नया हो, कुछ अलग हो जो पिछले 2 वर्षों की भांति कष्टदायी ना हो।


 

भारत में इस बार भी नए साल पर पिछले कुछ वर्षों की भांति समाज दो वर्गों में बटा हुआ दिखाई दे रहा है। एक वर्ग जो इस नए वर्ष पर खुशियां मना रहा है, नए वर्ष का स्वागत कर रहा है तो वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो इस नीरस वर्ष के आगमन पर खुशियां मनाने का विरोध कर रहा है। पहला वर्ग जो नए साल में विभिन्न तरीकों से जश्न मनाने में अपना समय और अपना धन खर्च कर रहा है तो वहीं दूसरा वर्ग अपनी संस्कृति और प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक रुप से प्रमाणित नववर्ष को अपना नववर्ष मानने की बात कर रहा है।
समाज में इस प्रकार की दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं के पनपने के पीछे अनेक कारण हैं, पहला जो सर्वमान्य कारण है कि अंग्रेजो ने भारत पर अपनी संस्कृति थोपी है, अंग्रेजों के आगमन से पूर्व भारत में यह वैश्विक ग्रेगोरियन कैलेंडर मान्य नहीं था बल्कि यहां पर विभिन्न शासक अपने अपने कैलेंडर मानते थे। भारत में यह कैलेंडर 1752 में लागू किया गया था। वर्तमान में भारत सरकार का सरकारी कैलेंडर शक संवत है, जिसे भारत का राष्ट्रीय पंचांग कहा जाता है, इसे 22 मार्च 1957 को अपनाया गया था। मुस्लिमों में भी अपना एक अलग संवत हिजरी सन् मान्य है। हिंदुओं के व्रत और त्योहार का निर्धारण विक्रम संवत के अनुसार होता है, जो इस समय 2078 चल रहा है और आगामी चैत्र मास से नया विक्रम संवत 2079 शुरू होगा। इस प्रकार भारत जैसे बहु सांस्कृतिक देश में अनेक प्रकार के कैलेंडर मान्य हैं और सभी अपना अपना नववर्ष अपने अपने तरीकों से खुशियों के साथ मनाते आए हैं परंतु वास्तविक समस्या क्या है, लोग इस नववर्ष का विरोध क्यों कर रहे हैं, आइए यह जानते हैं।

 

 


 

आप लोग यह तो जानते ही हैं भारत में इस समय राष्ट्रीयता(राष्ट्रवाद) की नवीन लहर चल रही है। लोगों में राष्ट्र प्रथम एवं राष्ट्र की संस्कृति को संजोने, संस्कृति का पुनरुत्थान करने और उसे अपनाने की विचारधारा तेजी से पनप रही है। नागरिकों में विशेष तौर पर हिंदुओं में अंग्रेजों द्वारा थोपी गई संस्कृति के विरुद्ध विरोध की एक नई लहर पनपने लगी है। कुछ दिनों पहले क्रिसमस को मनाने का भी भारत में सोशल मीडिया पर काफी विरोध हो रहा था। उसी प्रकार नववर्ष को मनाने और पटाखे फोड़ने का भी काफी विरोध हो रहा है। इन सभी के पीछे अनेक कारण हैं, हिंदुओं में इसका विरोध इतना तेजी से इसलिए विकसित हो रहा है क्योंकि खुद को बुद्धिजीवी कहने वाले अनेक लोग जो पश्चिमी संस्कृति के पीछे तेजी से आकर्षित हो रहे हैं और भारतीय संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं, वे लोग हिंदुओं द्वारा वृक्षों की पूजा का विरोध करते हैं, इसे अंधविश्वास कहते हैं, हिंदुओं के त्योहारों पर आतिशबाजी का विरोध करते हैं जबकि स्वयं क्रिसमस पर प्लास्टिक के पौधे को सजा कर के त्यौहार मनाते हैं, स्वयं नए साल पर क्रिसमस पर पटाखे फोड़ कर प्रदूषण फैलाते हैं। दीपावली पर पटाखे फोड़ने का विरोध करते हैं, प्रदूषण फैलने का हवाला देते हैं किंतु वही लोग नए साल पर जमकर आतिशबाजी करते हैं और इसे नए साल का जश्न कहते हैं। 

 
इसी तरह की दोगली भाषा के कारण हिंदुओं में ईसाईयों के त्यौहार और  नव वर्ष का विरोध हो रहा है और अपना नव वर्ष अप्रैल में विक्रम संवत के अनुसार चलने वाले हिंदुवर्ष के प्रथम मास चैत्र के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को मानने का समर्थन हो रहा है जो वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित भी है क्योंकि ईसाईयों के नए वर्ष में समाज में, प्रकृति में, देश के वातावरण में किसी प्रकार का परिवर्तन दिखाई नहीं पड़ता जबकि विक्रम संवत जो हिंदी मास के अनुसार परिवर्तित होता है, वह प्राकृतिक परिवर्तन भी प्रदर्शित करता है। जब धरा शीतकाल, पतझड़ आदि झलकर वसंत ऋतु में पुनः अपने नए स्वरूप में प्रसारित होती है, उद्धृत होती है जो प्रकृति का एक नया स्वरूप होता है, प्राकृतिक रूप से वातावरण में बदलाव आता है, स्वच्छता होती है, उस आधार पर यह वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित एवं प्राकृतिक नववर्ष है जो पुरातन सनातन संस्कृति पर आधारित है।

यह बात पूर्णत: सत्य है कि यह आंग्ल नववर्ष पूर्णत: मानविक है, किसी भी तरह से वैज्ञानिक नहीं है। किसी भी तरह से प्राकृतिक बदलाव प्रदर्शित नहीं करता, किसी भी प्रकार का बदलाव किसी भी देश में, किसी भी समाज में नहीं आता है किंतु पूरे विश्व में यह मान्य है। इस कारण से हम भारत में एक नया पंचांग एक नया कैलेंडर जो पूरे विश्व से भिन्न हो उसे लागू नहीं कर सकते हैं। जब पूरा विश्व इस समय वैश्वीकरण के दौर से गुजर रहा हो तो उस दौर में कोई देश अपनी सीमाओं और संस्कृतियों में बंधे नहीं रह सकता। हर किसी को साझा संस्कृतियों, समावेशी संस्कृतियों के आधार पर कार्य करना होता है। परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम अपनी संस्कृतियों की रक्षा करना भूल जाएं, अपनी संस्कृतियों को संजोना, उन्हें मानना छोड़ दे। हमें इस वैश्विक कैलेंडर को  वैश्विक स्तर पर मानना होगा परंतु दैनिक जीवन में और देश के भीतर के कार्यों में हमे अपने सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक कैलेंडर को मानना चाहिए, क्योंकि यह वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है और इसके मास मौसम के अनुसार परिवर्तित होते हैं।

 

 

भारत में नव वर्ष के विरोध में एक कविता का जोर शोर से प्रचार हो रहा है हालांकि इसके मूल रचयिता के विषय में मतभेद है परंतु सोशल मीडिया पर इसे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कृति बताकर प्रसारित किया जा रहा है जबकि हरियाणा के रोहतक जिले में रहने वाले “अंकुर आनंद” इस कविता के स्वामित्व पर अपना दावा कर रहे हैं, इसे अपनी मौलिक कृति बता रहे हैं। खैर इसके रचनाकार कोई भी हों परंतु यह कविता अपने आप में बहुत कुछ कहती है। यह कविता विक्रम संवत पर आधारित प्राकृतिक नववर्ष, वैज्ञानिक नववर्ष को बहुत ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत करती है।
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यह नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं,
है अपना यह त्यौहार नहीं,
है अपनी यह तो रीत नहीं,
है अपना यह व्यवहार नहीं।

धरा ठिठुरती है सर्दी से,
आकाश में कोहरा गहरा है,
बाग बाजारों की सरहद पर,
सर्द हवा का पहरा है।
सूना है प्रकृति का आंगन,
कुछ रंग नहीं, उमंग नहीं,
हर कोई है घर में दुबका हुआ,
नव वर्ष का ये कोई रंग नहीं।

चंद मास अभी इंतजार करो,
निज तन में तनिक विचार करो,
नए साल में नया कुछ हो तो सही,
क्यों नकल में सारी अक्ल बही।
उल्लास मंद है जन-मन का,
आई है अभी बहार नहीं।
यह नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं,
है अपना यह त्यौहार नहीं।
यह धुंध कुहासा छटने दो,
रातों का राज्य सिमटने दो,
प्रकृति का रूप निखरने दो,
फागुन का रंग बिखरने दो। 
प्रकृति दुल्हन का रूप धार,
जब स्नेह-सुधा बरसाएगी,
शस्य श्यामला धरती माता,
घर घर खुशहाली लाएगी। 
जब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि को,
नव वर्ष मनाया जाएगा,
आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर,
जय गान सुनाया जाएगा।
युक्ति प्रमाण से स्वयं सिद्ध,
नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध,
आर्यों की कीर्ति सदा-सदा,
नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।
अनमोल विरासत के धनिकों को,
चाहिए कोई उधार नहीं।
यह नव वर्ष हमें स्वीकार नहीं,
है अपना यह त्यौहार नहीं,
है अपनी यह तो रीत नहीं,
है अपना यह व्यवहार नहीं।

 
यह भारत के राष्ट्रवाद से उपजी हुई अपने आप में मौलिक एक ऐसी कविता है जो भारतीय संस्कृति के संवत्सर (विक्रम संवत) को बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करती है, जो नववर्ष की अवधारणाओं को प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक रूप से प्रदर्शित करती है, जो ईसाईयों के ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार परिवर्तित होने वाले नीरस नववर्ष को प्रभावहीन साबित करती है।

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